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________________ ४३२ अनेकान्त [ वर्ष द्वारा विश्वमें प्रसारित की जारही हैं। जब विश्व पुष्प है । पाठक स्व० श्रीभगवतजीकी ओजपूर्ण भौतिकताकी ओर जारहा है तो ये रश्मियां उन्हें लेखनी और उनकी गदा-पद्य रचनाओंस सुपरिचित अवश्य प्रकाशदान करेंगी। हम पत्रकी सफलता है। उसी ओजपूगा लेखनीम यह पदयात्मक रचना चाहते हैं और चाहते हैं पुज्य कानजी स्वामीके लिखी गई है। भगवतीको प्रत्यक रचनामें नाति उपदेशोंका सार्वत्रिक प्रसार और प्रकाश। और सुधारकी पुट निहित रहती है। इस रचनामें भी १३-मुक्तिका मार्ग-प्रवक्ता, श्रीकानजी म्वामी। व दोनोंका जगह जगह प्रदशन हारहा है । इस छोटीसी पुस्तकम इम पौराणिक कथाको चित्रित अनुवादक, पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । मृल्य, किया है जिसमें बताया गया है कि विष्णकमार दम आने । प्राप्तिस्थान, श्रीजैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट मुनिने किम प्रकार बलिद्वारा उपमग किये गये सुवर्णपुरी-सोनगढ़ (काठियावाड)। सातसी मुनियांकी रक्षा करकं रक्षाबन्धनका त्योहार __ यह 'भगवान श्रीकुन्दकुन्दवहान जैन-शास्त्रमाला' का तेरहवां पुष्प है । इसमें संस्कृत महावीगटक प्रचलित किया और लोकम वात्मल्यका अमिट उदाआदि रचनाओंके रचयिता स्व. पं० भागचन्दजी हरण प्रस्तुत किया। पुस्तक रोचक और पटनीय है। द्वारा हिन्दीमें चं गये 'सत्ताम्वरूप' नामक महत्त्व- १५ मधुग्म (छह खण्टु काव्य ) - नमक पूर्ण ग्रन्थपर अध्यात्मयोगी पूज्य श्रीकानजी स्वामी श्रीभगवत जैन । प्रकाशक उपयुक्त भवन । मृः ।) गुजरातीमें किये गये मार्मिक आध्यात्मिक प्रवचन- इसमें म्वाधीनताकी ज्योनि, स्वयम्बग, मिहायको संगृहीत किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक उसीका नन्द, जनकनन्दिनी. माध-गवी श्रीर पुजारी इन रह पं० परमेष्टीदामजी कृत हिन्दी अनुवाद है। मूल खण्ड काव्यांका सङ्कलन है । इनम का अन ग्रन्थमें आपका स्वरूप और उसकी मना सिद्ध की प्रकट भी होचकं है । यह सभी मधुर और श्रेष्ठता है है। पं० भागचन्दजीन अपनी जिम नकणापण पैनी ही पर उनम श्रीज, शिक्षा और काव्यगरिमा भी व बुद्धिस सच्चे आन-अरहन्तदेवका प्रसाधन किया है। श्रीभगवतजी यदि कुछ थाड़े दिन और जावित हे उसी तकरण तीक्ष्ण बुद्धिस श्रीकानजी महागजन रहने नी उनके द्वाग मालूम नहीं कितनी माग उसका अपने मृक्ष्म प्रवचनों द्वारा मवल भाग्य माहित्य और ममाजकी सेवा हानी । आज ना उनकी करके सम्पोपण किया है तथा बतलाया है कि तत्व- यं कृतियाँ ही हमारे लिय स्मारक है । भावना है कि निणय तत्त्वज्ञान ही मुक्तिकामाग है जो हरेक मुभुतु- उनकी इन कृतियोंका समम्न मंसारम मान और को सब जगह और सब कालम प्राम होमकता । इम आदर हो । तत्त्वज्ञानकं बिना ही जीव गृहात मिथ्यात्वी बने १६-धर्म क्या है ? लग्बक, कुवर श्रीनमिचद रहत है । अतः उसे प्रापकर जीवों को गृहीत मिथ्यात्व- जैन पाटनी । प्रकाशक, श्रीमगनमल हागलाल पाटनी का त्याग करना चाहिए। तत्त्वज्ञ नेच्छुकांक लिय यह दि जैन पारमार्थिक ट्रस्ट, मदनगञ्ज । मूल्य, मनन । पुस्तक बड़ी उपयोगी और कल्याण कारक है । इमक ढमम पाटनीजान वास्तविक धर्म गग और द्वपकी माथम मूल ग्रन्थ भी रहता ना उत्तम हाता। सफाइ- नितिको वतलाया है । इसी प्रमङ्गमं जीवादि तत्त्वां छपाई आदि सव सुन्दर है। का स्वरूपनिर्देश भी किया है । जो केवल शुभ १४-रक्षाबन्धन (पौराणिक ग्वण्डका काव्य)- प्रवृत्तिको धर्म मानतं अथवा समझते हैं उसका निपध लेखक, स्व० श्रीभगवन जैन । प्रकाशक श्रीभगवत- करके निवृत्तिपरक ही धमकी व्याख्या की है। पुस्तक भवन फिन्मादपुर (आगग) । मृल्य, चार आने । उपयोग। है । पाटनीजाका प्रयत्न मराहनीय है। प्रस्तुत पुस्तक 'भगवत' पुस्तकमालाका नयाँ -- दरबारीलाल जैन कोटिया, न्यायाचार्य
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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