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________________ वीतराग-स्तोत्र [यह स्तोत्र कोई २० वर्ष पहले, अगस्त सन् १६२६ में, काँधला जि० मुजफ्फरनगरके जैनमन्दिरशास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, मुझे देखनेको मिला था; आज इसे अनेकान्तमें प्रकाशित किया जाता है। इसमें अलङ्कार-छटाको लिये हुए वीतरागदेवके स्वरूपका निर्देश करते हुए बार बार यह घोषित किया गया है कि 'जो पुण्य-हीन हैं वे ऐसे वीतरागदेवका दर्शन नहीं कर पाते।'-१र्थात् वीागका दर्शन-अनुभवन और सेवा-भजन बड़े भाग्यसे प्राप्त होता है। स्तोत्रकी पद-रचमा प्रायः सरल तथा सुगम है और उसपर सहज हीमें बिना किसी विशेष परिश्रमके-बहुतकुछ अर्थावबोध हो जाता है. इसीसे स्तोत्रका अर्थ साथमें देनेकी जरूरत नहीं समझी गई। यह स्तोत्र वें पद्यपरसे 'कल्याणकीर्ति' प्राचार्यका बनाया हुमा जान पड़ता है और हवें पद्यमें श्लेषरूपसे पासेन' और 'नरेन्द्रसेन' नामके प्राचार्योंका भी उल्लेख किया गया है, जो कल्याणकीर्ति के गुरुजन मालूम होते हैं। कल्याण कीर्ति. पद्मसेन और नरेन्द्रसेन नामके अनेक भाचार्य हो गये हैं, अभी यह निश्चित नहीं हो सका कि उनमें से यहाँपर कौन विवक्षित हैं :-सं०] (वसन्ततिलका) शान्तं शिवं शिव-पदस्य परं निदानं, मवज्ञमीशममलं जित-मोह-मानम् । संसार-नीरनिधि-मन्थन-मन्दगऽगं , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ १॥ अव्यक्त-मुक्ति-पद-पङ्कज-राजहंसं, विश्वाऽवतंसममरविहित-प्रशंसम् । कन्दर्प-भूमिरुह-भञ्जन-मत्त-नागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ २॥ संमार-नीरनिधि-तारण-यानपात्रं, ज्ञान्क-पात्रमतिमात्र-मनोग्य-गात्रम् । दुर्वार-मार-धन-पातन-बात-गगं२ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ३ ॥ दान्तं नितान्तमतिकान्तमनन्तरूपं, योगीश्वरं किमपि संविदित-स्वरूपम् । संसार-मारव-पथाऽमृत-निर्भराऽगं३ , पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥ ४ ॥ दुष्कर्म-भीत-जनता-शरणं सुरेन्द्रः, निश्शेष-दोप-रहितं महितं नरेन्द्रः । तीर्थक्करं भविक-दापित-मुक्ति-भाग, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥ ५॥ कल्याण-बल्लि-बन-पल्वनाऽम्बुवाह, लोक्य-लोक-नयनक-सुधा-प्रवाहं । सिद्धयङ्गना-वर-विलास-निबद्ध-गगं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥ ६॥ लोकाऽवलोकन-कलाऽतिशय-प्रकाशं, व्यालोक-कीर्ति-वर,निर्जित-कम्बु -हास्यम् । वाणी-तरङ्ग-नवरङ्ग-लसत्तडागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतरागम् ॥७॥ कल्याणकीर्ति-रचिताऽऽलय-कल्पवृक्ष, ध्यानाऽनल दलित-पापमुदात्त-पक्षम। नित्यं क्षमा-भर-धुरन्धर-शेषनागं, पश्यन्ति पुण्य-हिता न हि वीतरागम् ॥ ८॥ श्रीजेनसूरि-विनत-क्रम-पद्मसेनं, हेला-विनिर्दलित-मोह-नरेन्द्रसेनम् । लीला-विलंधित-भवाऽम्बुधि-मध्यभागं, पश्यन्ति पुण्य-रहिता न हि वीतगगम् ॥॥ १ मन्दराऽचल. २ पवन-वेग. ३ पूर्ण छायातरु. ४ शङ्ख ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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