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________________ २३२ भनेकान्त [ वर्ष लिये संभवत: गाथा न० २८० के भानपास हाशियेपर, बादका बना हुआ है, ठीक मालूम नहीं होता। मेरी समझमें उसके टिप्पणके रूपमें, नोट कर रक्खा होगा, और जो प्रति- यह ग्रंथ उमास्वातिके सत्त्वार्थसूत्रसे अधिक बादका नहीं लेखककी अमावधानीये मूलमें प्रविष्ट हो गई है। प्रवेशका है--उसके निकटवर्ती किसी समयका ह.ना चाहिये । और यह कार्य भ. शुभचन्द्रकी टीकामे पहले ही हश्रा है, इसीसे इसके कर्ता वे अग्निपुत्र कार्तिकेयमुनि नहीं है जो श्रामइन तीनों गाथाओंपर भी शुभचन्द्र की टीका उपलब्ध है तौरपर इसके कर्ता समझे जाते हैं और क्रौंचराजाके द्वारा और उसमें (तदनुसार पं. जयचन्द्रजीकी भाषा टीकामें भी) उपसर्गको प्राप्त हुए थे, बरिक स्वामिव मार नामके प्राचार्य बड़ी खींचातानीके साथ इनका सम्बन्ध जोडनकी चेष्टा की ही है जिस नामका उल्लेख उन्होंने स्वयं अन्तमंगल की गई है; परन्तु सम्बन्ध जुड़ता नहीं है। ऐसी स्थितिमें उक्त गाथामे श्लेषरूपसे भी किया है:-- . .. गाथाकी उपस्थितिपरसे यह कलपित करलेना कि उसे स्वामि- तिहयण पहाण-सामि कुमार-काले वितविय तबयरणं । कुमारने ही योगसारके उन दोहेको परिवर्तित करके बनाया है, बसपज्जसयं महलं परमतियं स्थवे गिछ । ४६।। समुचित प्रतीत नहीं होता-खासकर उस हालत में जबकि ग्रंथ- इसमें वसुपूज-सुत वासुपूज्य, मल्लि और अन्तके तीन भरमें अपभ्रंशभाषाका और कोई प्रयोग भीन पाया जाता हो। नेमि, पार्श्व तथा वर्तमान ऐसे पाँच कुमार-श्रमण तीथंकरोंको बहुत संभव है कि किसी दूसरे विद्वानने दोहेको गाथाका बन्ना की गई है, जिन्होंने कुमारावस्थामें ही जिन-दीक्षा रूप देकर उसे अपनी ग्रन्यप्रतिमें नोट किया हो, और यह लेकर तपश्चरण किया है और जो तीन लोकके धान भी संभव है कि यह गाथा साधारणसे पाठ भेदके साथ स्वामी हैं । और इससे ऐसा विनित होता है कि ग्रन्थ कर अधिक प्राचीन हो और योगीन्दुने ही इसपरसे थोडेसे परि- भी कुमारश्रमण थे, बालाह्मचारी थे और उन्होंने बाल्यावर्तनके साथ अपना उन दोहा बनाया हो; क्योंकि योगीन्दु के वस्थामें ही जिनदीक्षा लेकर तपश्चरण किया है-सा परमात्मप्रकाश श्रादि ग्रंथों में और भी कितने ही दोहे ऐसे कि उनको विषयमें प्रसिद्ध है, और इसीसे उन्होंने, अपनेको पाये जाते हैं जो भावपाहुड तथा समाधितंत्रादिके पोपर विशेषरूप में इष्ट, पाँच कुमार तीर्थकरोंकी यहाँ रतुत की है। से परिवर्तित करके बनाये गये हैं और जिसे डाक्टर साहबने स्वामि-शब्दका व्यवहार दक्षिण देशमें अधिक है और स्वयं स्वीकार किया है। जबकि कुमारके इस ग्रंथकी ऐसी वह व्यनि-विशेपोंके साथ उनकी प्रतिष्टाका द्योतक होता है। कोई बात अभी तक सामने नहीं आई.-कुछ गाथाएँ ऐसी कुमार, कुमारसेन, वुमारनन्दी और बुमारस्वामी जैसे जरूर देखने में पाती हैं जो कुन्दकुन्ः तथा शिवार्य जैसे नामोंके प्राचार्य भी दक्षिण में हुए हैं। दक्षिण देशमें बहुत प्राचार्योंके ग्रन्थों में भी समानरूपसे पाई जाती हैं और वे प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजाका भी प्रचार रहा है और और भी प्राचीन स्रोतसे सम्बन्ध रखने वाली हो सकती हैं, इस ग्रन्थकी गाथा नं० २५ में 'क्षेत्रपाल' का स्पष्ट जिसका एक नमूना भावनाओंके नामवाली गाथ.का उपर नामोल्लेख करके उसके विषय में फैली हुई रक्षा-सम्बन्धी दिया जा चुका है। अतः इस विवादापन्न गाथाके सम्बन्ध मिथ्या धारणाका निषेध भी किया है। इन सब बातोपरसे उक्र कल्पना करके यह नतीजा निकालना कि, यह ग्रन्थ ग्रन्थकार महोदय प्रायः दक्षिण देशके प्राचार्य मालूम होते जोइन्टके योगसारसे-साकी प्रायः छठी शतालीपे- हैं. जैसाकि डाक्टर उपाध्येने भी अनुमान किया है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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