________________
किरण ६-७]
प्रन्थ और अंथकार
२३१
रक्खा है: लोकभावनाको संसारभाषनाके बाद न रखकर मालूम नहीं होती-खासकर कम प्रान गाथा नं० २८०की निर्जराभाषनाके बाद रक्खा है और धर्मभावनाको बोधि. उपस्थितिमें, जो उसकी स्थितिको और भी सन्दिग्ध कर दुर्लभसे पहले स्थान न देकर उसके अन्तमें स्थापित किया देती है. और जो निम्न प्रकार है:है जैसा कि निम्न सुत्रसे प्रकार है
तच्चं कहिज्जमाणं णिच्चलभावेण गिलदे जो हि । ___“अनित्याशरण-संसारेषत्वाऽन्यत्वाशच्याss. तं चिय भावेइ सया सो वि य तत्त्चं वियाणेई ।। सव-संवर निरा-लोक- बोधिदुर्लभ • धर्मस्वाख्यात •
॥२०॥ तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः॥६-"..
इसमें बतलाया है कि, 'जो उपर्य तत्वको-जीवादिऔर इससे ऐसा जाना जाता है कि भावनाओंका यह
विषयक तत्वज्ञानको अथवा उसके मर्म को-स्थिरभावमेक्रम, जिसका पूर्व साहित्यपरसे समर्थन नहीं होता, बादको
दृढ़ताके साथ-ग्रहण करता है और सदा उसकी भावना उमास्वातिके द्वारा प्रतिष्ठित हुआ है । कार्तिकेयानुप्रेक्षामें
रखता है वह तत्वको सविशेष रूपसे जाननेमें समर्थ होता है। इसी क्रमको अपनाया गया है। अत: यह ग्रन्थ उमास्वातिके
इसके प्रनंतर दो गाथाएँ और देकर एवं पूर्वका नहीं बनता । तब यह उन स्वामिकार्तिकेयकी कृत्ति
लोयसहावं जो झादि' इत्यादि रूपसे गथा नं. भी नहीं हो सकता जो हरिषेणादि कथाकोषोंकी उन कथाके
२८३ दी हुई है, जो लोकभावनाके उपसंहारको
लिये हुए उसकी समाप्ति-सूचक है और अपने स्थानपर ठक मुख्य पात्र हैं, भगवती श्राराधनाकी गाथा नं. १५४६ में
रूपसे स्थित है । वे गाथाएं इस प्रकार हैं:'अग्निदयित' (अग्निपुत्र) के नामसे उल्लेखित हैं अथवा अनुत्तरोपपाददशाङ्गमें वर्णित दश भनगारोंमें जिनका नाम
को ण वसो इत्थिजणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं ।
को दिएहिं गा जिमो कोण कसाएहि संतत्तो।२८। है। इससे अधिक ग्रन्थकार और ग्रन्थके समय-सम्बन्धमें इस क्रमविभिन्नतापरसे और कुछ फलित नहीं होता।
सो ण वसो इथिजणे सण जिओ इंदिपहिं में हेण ।
जो ण य हिदि गंथं अब्भतर बाहिरं सव्वं ।२.२। अब रही दूसरे कारण की बात, जहाँ तक मैमे उसपर
इनमेंसे पहली गाथामें चार प्रश्न किये गए हैंविचार किया है और ग्रन्थकी पूर्वापर स्थितिको देखा है उस
कौन स्त्रीजनोंके वशमें नहीं होता? २ मदन-कामदेवसे परसे मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि ग्रंथों
किसका मान खंडित नहीं होता ?, ३ कौन इन्द्रियों के द्वारा उक्र गाथा नं० २७६ की स्थिति बहुत ही संदिग्ध है और
जीता नहीं जाता ?, ४ कौन कषाय से संतप्त नहीं होता? वह मूलत: ग्रंथका अंग मालूम नहीं होती-बादको किसी
दूसरी गाथ में केवल दो प्रश्नोंका ही उत्तर दिया गया है तरहपर प्रक्षिप्त हुई जान पड़ती है । क्योंकि उन गाथा
जो कि एक खटकने वाली बात है, और वह उत्तर यह 'लोकभावना' अधिकारके अन्तर्गत है, जिसमें लोकसंस्थान,
है कि-स्त्रीजनों के वशमें वह नहीं होता और वह इन्द्रियों लोकवर्ती जीवादि छह द्रव्य, जीवके ज्ञानगुण और श्रुत से जीता नहीं जाता जी मोहसे बाह्य और श्राभ्यन्तर समस्त ज्ञानके विकल्परूप नैगमादि सात नय, इन सबका संक्षेप में
परिग्रहको ग्रहण नहीं करता है। बढ़ा ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन गाथा नं. ११५ से २७८
इन दोनों गाथात्रोंकी लोकभावनाके प्रकरण के साथ कोई तक पाया जाता है। २७८ वी गाथामें नयों के कथनका
संगति नहीं बैठती और न ग्रन्थम अन्यत्र ही कथनकी ऐसी उपसंहार इस प्रकार किया गया है:
शैलीको अपनाया गया है । इर से ये दोनों ही गाथाएं स्पष्ट एवं विविहगााहिं जो वस्य ववहरेदि लोयम्मि। रूपसे प्रक्षिप्त जान पड़ती हैं और अपनी इस प्रक्षिप्तताके दसण-णाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोवखं च ॥ कारण उन 'विरला शिसुणहिं तरचं' नामकी गाथा न.
इसके अनन्तर विरला णिसुणहिं तच्चं' इत्यादि २७६ की प्रक्षिप्तताकी संभावनाको और दृढ करती हैं। मेरी गाथा नं.२७६ है, जो श्रौपदेशिक ढंगको लिये हुए है और रायमें इन दोनों गाथाओंकी तरह २७६ नम्बरकी गाथा भी ग्रंथको तथा इस अधिकारकी कथन-शैलीके साथ कुछ संगत प्रक्षिप्त है, जिसे किसीने अपनी प्रन्यप्रतिमें अपने उपयोगके