SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २.० अनेकान्त [वर्ष ८ भी कैप श्राकाशके पुष्प समान अवस्तु है ? वह तो द्रव्यादि-ज्ञानविशेषका विषय सर्वजनोंमें सुप्रसिद्ध है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि कारण दम(अवयव)-कार्यद्रव्य (अवयवी)की, गुण-गुणीकी, कर्म-कर्मवानकी समवाय-समवायवानकी एक दुसरं से स्वतंत्र पदार्थके रूप में एक बार भी प्रतीति नहीं होती। वस्तुतत्त्व इससे विलक्षण-जात्यन्तर अथवा विजातीय-है और वह सदा पदोंको अवयव-अवयवीरूप, गुण-गुणीरूप, कर्म-कर्मवानरूप तथा सामान्य-विशेष. रूप प्रत्यक्षादि प्रमाणांसे निर्बाध प्रतिभासित होता है।) (यदि वैशे पिक-मतानुसार पदार्थोको-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छहोवोपर्वथा स्वतंत्र मानकर यह कहा जाय कि समवाय-वृत्तिमे शेप सब पदार्थ कृतिमान हैं अर्थात समकाय नामके स्वतंत्र पार्थ-द्वारा वे सब परस्परने सम्बन्ध को प्राप्त हैं, तो) समवायवृत्तिके प्रवृत्तिमती होनेस-वाय नाम के स्वतंत्र पदार्थका दूसरे पदार्थों के साथ स्वयका कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण उसे स्वयं असम्बन्धवान माननेसेसंसर्गकी हानि होती है-किसी भी पार्थका सम्पर्क पृथवा सम्बन्धक दूसरे के साथ नहीं बनता । समकायसमवायिकी तरह अवरट पदार्थों के समवायवृक्तिसे संसर्गकी कल्पना न करके, पदार्थों के अन्योऽन्य-संसर्ग (एक दूसरे के साथ सम्बन्ध) को स्वभावरितु माननेपर स्यावाद शासनका ही श्राश्रय होजाता है; क्योंकि स्वभावसे ही इसका सभी गुण-कर्म-सामान्य-दिर पोकेम कति तादायका अनुभव करनेवाले ज्ञानविशेषके वर.मे यह दव्य है, या गुण है, यह कर्म है. यह सामान्य है. यः विशेष है और यह उनका अविश्वम्भावरूप (अस्थग्भूत) समवाय-सम्बन्ध है. इस प्रकार भेद करके सतबनिबन्धन (मभाचीन नयव्यवस्थाको लिये हुए) व्यवहार प्रवर्तता है और उससे अनेकान्तमत प्रसिद्ध होता है, जो वैशेषिक का इष्ट नहीं है और इसलिये वैशेपियोंके मतमें स्वभावसिद्ध संसर्गके भी न बन सकनेसे संस की हानि ही ठहरती है। और संसगेकी हानि होनर-पदार्थों का परस्पर स्वत: (स्वभादसे) अथवा परत: (दुसर के निमित्तम) कोई सम्बन्ध न बन सकनेके कारण ... संपूर्ण पदार्थों की हानि ठहरती-किसी भी पदार्थ की तब सत्ता अथवा व्यवस्था बन नहीं सकती।- श्रतः जो लोग इस हानिको नहीं चाहते उन ग्रास्तिकोंके द्वारा वही वस्तुतत्व समर्थनीय है जो अभेद-भेदामक है. परस्परतंत्र है, प्रतीतिका विषय है तथा प्रक्रिया में समर्थ है और इमलिये जिसमें विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं है । वह वस्तुतत्त्व हे वारजिन ! अापके मतमें प्रतिाहत है, इससे श्रापका मत अद्वितीय है-नयों तथा प्रमाणों के द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्वुल स्पष्ट करनेवाला और दूसरे सभी प्रवादों (सर्वथा एकान्तवादी) से अबाध्य हानेके कारण सुर वरिथत है-दूसरा (सर्वथा एकान्तवार का प्राश्रय लेनेवाला) कोई भी मत व्यवस्थित न होने से उसके जोडका, सानी अथवा ममान नहीं है, यह अपना उदाहरण श्राप है।' समवाय पदार्थका दसरे पदार्थो के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि सम्बन्ध तीन प्रकारका होता है-एक संयोग-सम्बन्ध, दूसग समवाय-सम्बन्ध और तीसरा विशेषण-विशेष्यभाव-सम्बन्ध । पहला संयोग-सम्बन्ध इसलिये नहीं बनता. क्योंकि उसकी वृत्ति द्रव्यमें मानी गई है-द्रव्योंके अतिरिक्त दूसरे पदार्थों में वह घटित नहीं होती-और समवाय द्रव्य है नहीं, इसलिये संयोगसम्बन्धके माथ उसका योग नहीं भिडता । यदि अद्रव्यरूप समवायमें संयोगकी वृत्ति मानी जायगी तो वह गुण नहीं बन सकेगा और वैशेषिक मान्यताके विरुद्ध पड़ेगा; क्योंकि वैशेषिकमतमें संयोगको मी एक गुण माना है और उसको द्रव्याश्रित बतलाया है । दूसग समवाय-मम्बन्ध इसलिये नहीं बन सकेगा, क्योंकि वह समवायान्तरकी अपेक्षा रक्खेगा और एकके अतिरिक्त दुसरा ममवाय पदार्थ वैशेषिकोंने माना नहीं है । और तीसग विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध इसलिये घटित नहीं होता, क्योंकि वह स्वतंत्र पदार्थोका विषय ही नहीं है । यदि उसे स्वतंत्र पदार्थोका विषय माना जायगा तो अतिप्रसंग श्राएगा और तब सह्या चल (पश्चिमीघाटका एक भाग) तथा विन्ध्याचल जैसे स्वतंत्र पर्वतोमें भी विशेषण-विशेष्यभावका सम्बन्ध घटित करना होगा, जो नहीं हो सकता। विशेषण-विशेष्यभावसम्बन्धकी यदि पदार्थान्तरके रूपमें संभावना की जाय तो वह सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा विना नहीं बनता और दूसरे सम्बन्धकी अपेक्षा लेनेपर अनवस्था दोष पाता है। इस तरह तीनोंमेंसे कोई भी सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy