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________________ किरण १] ग्रन्थ में रक्खे गए हैं। कुल पच= संख्या, कुल पद्मसंस्था, जैसीकि हस्त लिखित प्रतिमें लिखी है, २०७० होती है। संधियोंके उपसंहार या पुष्पिकामें लिखा है कि यह धर्मपरीक्षा-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष स्वरूप चार पुरुषार्थोंके निरूपया के लिए सुख हरिषेणने बनाई है। उदाहरण के लिए प्रत्यकी समाप्ति समयकी संधि-पुचिका इस प्रकार है: हरिपेत अपभ्रंश-धर्म-परीक्षा इय धम्मपरिक्खाए चटवग्गाहिट्टियाए इ-हरिषेण कथाए एयारसमो संधि सम्मती (सी) हरिषेणने अन्य अपभ्रंश कवियोंकी तरह ● कदावकोंके आदि और अन्तमें अपने सम्बन्धमें बहुतसी बातोंका निर्देश किया है। उन्होंने लिखा है कि मेवाद देश में विविधकलाओं में पारंगत एक हरि नामके महानुभाव थे। यह सिरि-जर (सिरि-ओोजपुर के चक्के वंशज थे । इनके एक धर्मात्मा पुत्र था, जिसका नाम गोवा गोवर्धन था। उसकी पत्नीका नाम गुणवती था, जो जैनधर्ममें प्रगाढ़ श्रद्धा रखती थी। उनके हरिषेण नामका एक पुत्र हुआ विद्वान् कविके रूपमें विश्व हुआ उसने किसी अपने कार्यवश (कर्ज) चित्तर (चित्रकूट) छोड़ दिया और वह अचलपुर चला श्राया । वहां उसने इन्द्र और अलंकार शास्त्रका अध्ययन किया और प्रस्तुत धर्मपचाकी रचना की। प्रासादिक पक्रियां नीचे उद्धृत की जाती है संधि ११, कडावक २६:-- इय मेवाड- देसि जया - संकुलि सिरिउन उर गिराय- धक्कड कुलि । पात्र करिंदम-दा-हरि आठ काहिं कुम या हरि । सामु पुत्त पर मारि-महोब गुथ गया हि कुत्र गण दिवाय । १ 'बुध' कलकी पंडित सम्मानसूचक उपाधि मालूम होती है। २ क्या 'सिरि' उस नगरके नामका अंश है? यह ध्यान देनेकी बात है कि अपभ्रंश 'भविसत्तका' के कर्त्ता धनपाल भी धक्कड वंश हीके थे । मिलती जुलती एक गोवऋणु या उप्पण्य में जो सम्मन्तं रयण-संपुण्यात | हो गोवगुणासु पिय गुणव जा जियावर पथ चिचिव' ताप आणि हरिसेरा-खाम सुड जो संजाब विबुद्द कइ - विस्सुर । सिरि-चित्तन व अचल उन्हो गठ गिय-कग्जें जिया-हर-पडर हो । सहि छदालंकार पसाहिय धम्मपरिक् एड में माहि जे मज्मथ-मब श्रायाहिं से मच्छ अवयाहिं से सम्मत जेा मलु खिज्जह केवलगालु ता उप्पज्जइ । घातहो पुग्गु केला हो य- पमाण हो जीव-परसहिं सुइडिङ | बादा-दिड अवत मोक्ख सुक्म्ब-भलु पयडियउ । संधि ११, कडाव २७ :-- विक्रम-वि परिवसिय कार बनगयए वरिम-महम-ताए । इय उष्पणु भावय-जसा मुहयरु डंभ-हिय - धम्मासव-सरयरु | 1 बुध हरिषेणने इस ग्रन्थकी रचनाका कारण इस प्रकार बतलाया है। उन्होंने लिखा है कि एक बार मेरे मन में खाया कि यदि कोई श्राकर्षक पय-रचना नहीं की जाती है तो इस मानवीय बुद्धिका प्राप्त होना बेकार है और यह भी संभव है कि इस दिशामें एक मध्यम बुद्धिका आदमी उसी तरह उपहासास्पद होगा, जैसाकि संग्राम-भूमिसे भागा हुआ कापुरुष होता है। फिर भी अपनी छन्द और अलंकार शास्त्र सम्बन्धी कमजोरी जानते हुए भी उन्होंने १ जागा ४ प्रति १ ५. प्रति १ ६ प्रति एवि श्रवल उदो, सय उ पस्थिपतिकालए, १ ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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