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________________ किरण ८-९] आचार्य माणिक्यनन्दिके समयपर अभिनव प्रकाश ३५३ आदिके महाविद्वान् होंगे और उनके कई शिष्य रहे और उपहास भी करते होंगे और जिसकी प्रतिध्वनि होंगे। अतः सम्भव है कि प्रभाचन्द्र महाविद्वान प्रारम्भके ३रे, ४थे, और वें पद्योंसे भी स्पष्टतः प्रकट माणिक्यनन्दिकी ख्याति सुनकर दक्षिणसे धारा होती है। नगरीमें, जो उस समय आजकी फाशीकी तरह दूसरा आधार यह है कि उन्होंने टीकाके अन्तमें समस्त विद्याओं और विविध शास्त्रज्ञ विद्वानोंकी जो प्रशस्ति दी है उसमें माणिक्यनन्दिका गुरु रूपसे केन्द्र बनी हुई थी और राजा भोजदेवका विद्याप्रेम स्पष्टतः उल्लेख किया है। और उनके आनन्द एवं सर्वत्र प्रसिद्धि पा रहा था, उनसे न्यायशास्त्र पढ़नेके प्रसन्नताकी वृद्धि कामना की है । साथ ही 'नन्दतात्' लिये आये हों और पीछे वहाँके विद्याव्यासङ्गमय पद उनकी वर्तमान कालताको भी प्रकट करता है। वातावरणसे प्रभावित होकर वहीं रहने लगे हों तीसरा आधार यह है कि नयनन्दि, उनके गुरु अथवा वहींके बाशिंदा हों तथा बादमें गुरु महापण्डित माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र इन तीनों माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखकी टीका लिखनेके लिये विद्वानोंका एक काल और एक स्थान है।। प्रोत्साहित तथा प्रवृत्त हुए हों। जब हम अपनी इस चौथा आधार यह है कि प्रभाचन्द्र के पद्मनन्दि सम्भावनाको लेकर आगे बढ़ते हैं तो उसके सब सैद्धान्त और चतुर्मुखदेव(वृषभनन्दि) ये दो गुरु आधार भी मिल जाते हैं। सबसे बड़ा आधार यह बतलाये जाते हैं और ये दोनों ही नयनन्दि है कि प्रभाचन्द्रने टीका(प्रमेयकमलमार्तण्ड)को (ई० १०४३) के सुदर्शनचरितमें भी माणिक्यनन्दिके प्रारम्भ करते हुए लिखा है कि 'मैं अल्पज्ञ पूर्व उल्लिखित हैं । अतः नयनन्दिके विद्यागुरु माणिक्यनन्दिके चरणकमलोंके२ प्रसादसे इस माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र के भी न्यायविद्यागुरु रहे शास्त्रको बनाता हूँ , क्या छोटा-सा गवाक्ष (झरोखा) हों और वे ही परीक्षामुखके कर्ता हों तो कोई सूयकी किरणोद्वारा प्रकाशित हो जानेसे लोगोंके असम्भव नहीं है। एक व्यक्तिके अनेक गुरु होना लिये इष्ट अर्थका प्रकाशन नहीं करता अर्थात् कोई असङ्गत नहीं है। आचार्य वादिराजके भी अवश्य करता है।' इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने मतिसागर, हेमसेन और दयापाल ये तीन गुरु थे। गुरु माणिक्यनन्दिके चरणों में बैठकर परीक्षामुखको पाँचवाँ आधार यह है कि परीक्षामुखकार और समस्त इतर दर्शनोंको, जिनके कि वे स्वयं माणिक्यनन्दि, वादिराजसूरि (ई० १०२५) से पूर्वप्रभाचन्द्रके शब्दोंमें 'अर्णव' थे, पढ़ा होगा और वर्ती प्रतीत नहीं होते, जैसा कि पहले कहा जा उससे उनके हृदयमें तद्गत अर्थका प्रकाशन हो चुका है। गया होगा और इसलिए उनके चरणप्रसादसे अतः इस विवेचनसे यह ज्ञात होता है कि उसकी दीका करनेका उन्होंने साहस किया होगा। माणिक्यनन्दि और प्रभाचन्द्र परस्पर साक्षात् गुरुकी कृतिपर शिष्यद्वारा टीका लिखना वस्तुतः गुरु-शिष्य थे और प्रभाचन्द्रने अपने साक्षात् गुरु माहसका कार्य है और प्रभाचन्द्र के इस साहसको माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर उसी प्रकार टीका देखकर सम्भवत: उनके कितने ही साथी स्पर्धा लिखी है जिस प्रकार बौद्ध विद्वान कमलशीलने १ 'शास्त्रं करोमि वरमल्यतरावबोधो, अपने माक्षात् गुरु शान्तक्षितके तत्त्वसंग्रह पर माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्यसादात् । 'पञ्जिका' व्याख्या रची है। अतः इन सब आधारों अर्थ न कि स्फुटयति प्रकृतं लघीया १ उल्लेख पहले दिया जाचुका है। ल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ॥२॥ २ त श्रीमन्मतिसागरो मुनिपतिः श्रीहेमसेनो दया२ यहाँ 'पद' शब्द का परीक्षामुख अर्थन करके 'चरण' पालश्चेति दिवि स्पृशोऽपि गुरवः स्मृत्याभिरक्षन्तु माम् ॥२' अर्थ ही करना ज्यादा संगत है। -न्याय वि. वि. लि.द्वि. प्र.।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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