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________________ अनेकान्त [वर्ष ८ कारहा। भवितव्यमिति चेदत्र केचित्परिहारमहः-पृ०७०६। की वृत्ति है। किन्तु कारिका और वृत्तिके प्राद्य अक्षरोंके यहां यह स्पष्टतया बतलाया गया है कि मिद्धि- प्रतीकमात्र दिये गये हैं जिससे यह जानना बड़ा कठिन है विनिश्चयपर स्वयं अकल देवकी स्वोरजवृत्ति है और कि यह मूल भाग है और वह ससम्बद्ध इतना है। टोकासे कारिका तथा तृत्तिका एक प्रसंगतिकी आशंका करके अजग और दूसरी जगहमे मूलभाग उपलब्ध भी अभी 'केचित्' शब्दोंके साथ उसका परिहार भी किया है। तक नहीं हुआ, जिसकी सहायतासे वह मूलभाग टीकापरसे टीकाकारने कितनी ही जगह मूलका रकाओंगे 'मूत्र' और पृथक् किया जा सके और ऐसी हालत में मूलभागको टीका उनके विवरणको 'वृत्ति' कहा है। अत: मिद्धिविनिश्चयकी परसे पृथक उद्धृत कर सकना बहा दुष्कर है। इसमें संदेह स्वोपज्ञ वृप्तिमें अब कोई सन्देह नहीं रहना । नहीं कि उसके लिये बड़े परिश्रमकी जरूरत होगी। मुख्तार टीकाके प्रारम्भमें मगलाचरण के बाद अकल के सा०ने बढे परिश्रमके साथ मङ्गलाचरणका निम्न पद्य बचनोंकी इस कलिकाल में दुर्लभता प्रकट करते हुए और उद्धृत किया था :-- उन्हीं में अपनी मति श्रद्धाको स्थिर होनेकी भावना व्यक्त सर्वशं सर्व-तत्त्वार्थ-स्याद्वाद-न्याय-देशनम। करते हुए टीकाकारने बड़े ही महत्वका एक निम्न पद्य श्रीबर्द्धमानमभ्यच्य वक्ष्ये सिद्धिनिश्चयम् ॥१॥ दिया है: हमने भी एक कारिकाक उद्धत करनेका प्रयत्न किया अकलवचः काले कलो न कलयाऽपि यत् । है, जो इस प्रकार मालूम होती है:-- नपु लभ्यं क्वचिल्लब्ध्वा तत्रैवास्तु ममम ॥२ समर्थवचनं जल्पं चतुझं विदुर्बुधाः । - इसके आगे एक अन्य पद्य द्वारा प्रकलङ्कक व मयको पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना ।। सदरत्नाकर-ममुद्र बतलाया है और उसके सूक्तरनोंको भनेकों द्वारा यथेच्छ ग्रहण किये जानेर भी कम न होने का ___ --पृ० ७३५ (५ वाँ प्रस्ताव) कारण उसे सद्रग्नाकर ही प्रकट किया है। वह सुन्दर पद्य टीकामें मूलका हरुलेख 'कारिकां विवृण्वन्नाह' इस प्रकार है: 'स्वार्थत्यादि - संग्रहवृत्तार्थमुद्धत्य विवृण्वन्नाह । अकलवचोम्भोधेः सूक्तरत्नानि यद्यपि । 'तदद्वयमाचार्यः स्वयं दुषयन्नाह-युक्तमित्यादि' 'एतद् गृह्यन्ते बभिः स्वैरं सद्रत्ननाकर एव सः॥ दूयितुं सुत्राथेमाह नर्थवेत्यादि' 'कारिकामा इस ग्रन्थमें बारह प्रस्ताव हैं और ये स्वयं प्रकलदेव 'सूरंगह' श्रादि रूपसे किया गया है । कहीं कहीं तो कृत ही जान पड़ते है. क्योंकि उनके दूसरे प्रन्थों में भी प्राधी और पूरीकी पूरी कारिकाको ही सुगम कहकर छोद उन्होंने इसी प्रकारसे प्रस्ताव-विभाजन किया है। प्रस्ताव दिया गया है । यथा-'पूर्वार्द्धस्य सुगमत्वाद् व्याख्यानपरिच्छेदको कहते हैं। धर्मकीत्तिने प्रमाण वार्तिको परिच्छेद मकृत्वा परमद्धे व्याचष्टे', 'द्वितीयां विवृण्वन्नाह-- नाम चुना है और अकल देवने परिच्छे दार्थक 'प्रस्ताव' परस्परेत्यादि, सर्व सुगम' 'कारिकायाः सुगमत्वात' नाम पमन्द किया है। वे बारह प्रस्ताव निम्न प्रकार हैं: प्रादि । जिन कारिकाओं अथवा वृत्तिको अव्यख्य त छोड़ प्रत्यक्षसिद्धि, २ सविकल्पकमिद्धि, ३ प्रमाणान्तर दिया गया है इनका उद्धार कैसे होगा? यह शोचनीय है। सिद्धि, ४ जीवमिद्धि, ५ जरूपसिद्धि, ६ हेतुल क्षणमिद्धि. रचना शैली और भाषा७ शाबसिद्धि, ८ सर्वज्ञसिद्धि, ६ शब्दसिद्धि, १० अर्थनय- समग्र टीका गद्यमें लिखी गई है। प्रारम्भमें ५ और सिद्धि, " शब्दनयसिद्धि और १२ निक्षेपमिद्धि। इन मध्यमें 'शास्त्रसिद्धि' नामक सातवें तथा 'शब्द सिद्धि' नाम प्रस्तावोंमें विषयका वर्णन उनके नामसे ही मालूम के इवें प्रस्तावमें क्रमश: १६, ७ अनुष्टुप् पथ अवश्य पाये होजाता है। ___ जाते हैं जो खुद टीकाकारके ही रचे हुए होना चाहिएँ। टीकामें मुलभाग उस प्रकारसे अन्तर्निहित नहीं है जिस प्रत्येक प्रस्ताव और टीकाके अन्त में समाप्तिसूचक कोई पद्य प्रकार प्रभाचन्द्र के न्यायकुमुदचन्द्र में लघीयत्रय और उस नहीं है। ग्रंथात में तो उसका न होना खटकता भी है,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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