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________________ किरण १] श्रीजम्बूजिनाष्टकम् क्योंकि प्रारम्भमें भी पच थे और प्रायः ऐसा देखा जाता पद्धति या किमूख प्रन्यके पद-वाक्योंका समास करके है कि जिस प्रत्यके भारम्भमें पद्य होते हैं उसके अन्त में भर्थ बतलाया गया है। तात्पर्य यह कि टीकाकी व्याख्या भी एकाध पच जरूर रहा करता है। जैसे परीक्षामुख, अधिकांश खण्डान्वय शैजीकी है। पथापायदीपिका और न्यायकुमदद मादि । प्रत्येक प्रस्ताव तज्ज्ञानहेतुः कुतः ? इत्याह-शब्दार्थप्रत्ययाङ्गऔर टीकाके अन्तमें सिर्फ निम्न प्रकार पुस्तिकावाक्य हैं:- मिति, शब्दानुकरणादर्थस्य घटादेहिको यः प्रत्ययस्तभादि-'इतिश्रीरविभद्रपादोपजीव्यनन्तवीर्यविरचितायां स्याङ्ग निमित्तम् । एतर कुनः ? इत्याह-विवेच यति सिद्धिविनिश्चयटोकायां प्रत्यक्षसिद्धिः प्रथमः प्रस्तावः।' यतः । के भेदम । कथं यथाशक्ति । केषां वाच्या ति सिद्धिविनिश्चयटीकायामनन्तवीर्यविरचि. नामभिधेयानाम । क्व वाचकेषु । यत एवं ततः तायां निक्षेपसिद्धिादशमः प्रस्तावः । समाप्तमिति। प्रतिपत्तः पुरुषम्य विषयविकल्पोपलब्धरुपयोगो भाषा सर्वत्र प्रसन्न और प्रायः सरल है। ग्याल्या- निक्षेप इति ।'-पृ०१५४६ । श्रीजम्बूजिनाष्टकम् ( रचयिता-श्री पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ) यदीयबोधे सकलाः पदार्थाः समस्तपर्याययुना विभान्ति । जितारिफर्माष्टकपापपुजो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।। १ ।। अभूत्कलावन्तिमकेवली यो निरस्तमंमारसा स्तमायः । समुज्वलत्केवल बोधदीपो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।। २ ।। विहाय यो बाल्यवयम्यमीमान्भुजङ्गभीगान्करुगान्तरात्मा । प्रपन्ननिर्वेददिगम्वरत्वो जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥ ४ ॥ कृते विवाहेऽपि धृतो न कामो अणोरगीयानपि भोगवगें। निजात्महितभावनया प्रबुद्धो जिनांस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥ ५ ॥ जिनेन्द्रदीक्षां सुग्वदां गृहीत्वा निहत्य य: कर्मचतुष्टयं च । यः केवलो भव्याहतोऽन्तिमोसी जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ।। ६ ।। हितोपदेशं कुर्वन हितैषी समानयद्धर्मपथे सुलोकान । समन्ततो यो विजहार लोक जिनोऽस्तु जम्बमम मार्गदर्शी ।।७।। स्वयंवृतो मुक्तिरमाविलासैः मद्यो विमुक्तो मथुगपुरीतः । स विश्वचक्षुर्वियुधेन्द्रवन्धो जिनोस्तु जम्यूमम मार्गदर्शी* ।।८।। यह जम्बूजिनाष्टक मैंने उस समय रचा था और उसका पं राजकुमारजी माहित्याचार्य द्वाग संशोधन कगया था जब मैं श्रीऋषभब्रह्मवर्याश्रम चौगमी मथुगमें प्रधानाध्यापक था। च कि चौरासी मथुरासे जम्बूस्वामीके निर्वाणलाभ लेने की अनुश्रुनि प्रसिद्ध है। श्रतएव वहाँ उनका गुण कीर्तन करना आवश्यक जानकर स्थानीय ब्रह्मचारियोंके लिये यह प्रार्थना के रूप में रचा गया था।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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