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________________ किरण १] श्रा० अनन्तवीर्य और उनकी सिद्धिविनिश्चय-टीका और अपनेको उनका 'पादोपजीवी-शिष्य बतलाया है। यह टीका अकल देवके उसी महत्वपूर्ण 'स्वोपज्ञइससे इतना ही प्रकट होता है कि प्राचार्य अनन्तवीर्य वृत्तिसहितसिद्धिविनिश्चय' ग्रंथपर लिखी गई है जिसके प्राचार्य रविभद्र के शिष्य थे। ये रविभद्र कौन थे? इसका महात्म्यको जिनदासगणि महत्तरन' निशीथचूणि' परिचय न टीकाकारने कराया और न अन्य साधनमे प्राप्त और श्रीचंद्रसूरिने 'जातफल्पचूगि में प्रकट किया है और होता है। इतना अवश्य मालूम होता है कि ये उस समय उसे दर्शनप्रभावकशास्त्र बतलाया है। हम टीकाकी के अच्छे ख्यातनामा श्राचार्य हैं और अनन्तवीर्य उनके उपनधिका दिलचस्प और दुःखपूर्ण इतिहास--परिचय शिष्य माने और कहे जाते थे । अर्थात् प्रस्तुत अनन्तवीर्य श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने अपने पुरानी बातोंकी 'रविभव-शिप्य अनन्तवीर्य' के नामसे प्रसिद्ध थे। इससे खोज' शीर्षक लेख में दिया है। यह पहले कहा ही एक बात यह भी मालूम होती है कि इन अनन्तवीर्यके जा चुका है कि अकलदेवने अपने सभी न्याय-ग्रंथोंपर पहले या समसमयमें कोई दूसरे अनन्तवीर्य भी होगये या स्वीपज्ञ वृत्तियों लिखी हैं। कुछ विद्वान पहले मिद्धिरहे जिनसे वे अपनेको व्यावृत्त करते हुए 'रविमशिष्य विनिश्चय की बोरजवृत्ति सन्देह करते थे किन्तु अब यह अनन्तवीर्य' बतलाते हैं। पीछे मैं एक फुटनोटमें सिद्धि माना जाने लगा है कि उनकी सिद्धिविनिश्चयपर भी विनिश्चयटीकामें उल्लिखित 'अनन्तवीय' की संभावना कर स्वोपज्ञ वृत्ति है। इसके लिये एक अति स्पष्ट प्रमाण नीचे श्रआया हो सकता है कि वे ही कोई अनन्तवीर्य दिया जाता है:और ग्रंथकार भी माने जाते हों। जो हो, इतना निश्चित है ननु कारिकायां अस्ति प्रधानम' इत्यन्यत्माध्यं कि प्रस्तुत टीकाके कर्ता अनन्तवीर्यके गुरु रविभद्र' थे और निर्दिष्टं वृत्ती तु 'भेदानामेककारगापूर्वकत्वा' अन्यदिति वे उनके शिष्य कहलाते थे। कथं वृत्तसूत्रयाः मानत्यम, सुत्रानुरूपया च वृत्या प्रा. अनन्तवीर्यने जो ग्रंथ रचे हैं वे व्याख्या ग्रंथ हैं। १ 'नन्दिगि मा इन्हीं जिनदामगागा महमर की रची मानी उन्होंने मौलिक ग्रंथ भी कोई रचा या नहीं, इसका कोई जाती है। और उममें उन्होंने उसका रचनाममय शक पता नहीं। श्रा० प्रभाचन्द्र और प्रा. वादिराजके तो ५६८ ई. ६७६ ) दिया है । श्री. न्यायाचार्य १० महन्द्रव्याख्या और मौलिक दोनों तरहके ग्रंथ पाये जाते हैं। कुमारनी ( अकलंकग्रन्यत्रयम्ना पृ० १५) हमके, एक संभव है उनने भी कोई मौलिक ग्रंथ रचा हो और जो कतृत्वम और मुनि जिनविजय (अकलंकग्र० प्रास्ताविक श्रान प्राप्त नहीं है। व्याख्याग्रन्थ उनके दो हैं-१ प्रमाण- फुटनोट पृ० ४-५) के उल्लेग्वानुमार 'कुछ विद्वान' इम संग्रहमा और २ सिद्धिविनिश्चयटीका । प्रमाणसंग्रहभाष्य चांग के प्रान्तमें पाई जाने वाला रचनाकाल निर्देशक के सिद्धिविनिश्चय टीकामें केवल उल्लेख मिलते हैं। उन पंक्ति' को लेकर इसके रचनाकालमें मन्देद प्रकट करने उल्लखामे इस ग्रंथ की विशालता और महत्वता जानी जाती हैं, किन्तु जिनविजय जी का यह कथन कि हमने जितनी है क्योंकि सिद्धिविनिश्चयटीका जैसे विस्तृत ग्रंथमें भी प्रतियाँ इम (नन्दीचूग्णे) ग्रन्थका जहां कहीं भण्डारी उसको देखने की प्रेरणा कीगई है और यह कहा गया है कि में देखी हैं, उन मन में यह (रचनाकाल निर्देशक) प्रपञ्च प्रमाणसंग्रहभाष्यमे जानना चाहिये । इससे प्रमाण- पक्ति बराबर लिखी हुई मिली है।' उपेक्षा नहीं है संग्रहभाप्यकी महत्वता और अपूर्वता प्रकट होती है। और इम लिये नन्दिचणि के समयको सदमा प्रयुक्त अगवा अन्वेपकोंको इस अपूर्व ग्रंथका अवश्य पता चलाना उम पंक्तिको प्रक्षित' नहीं कहा जा सकता। इसमें एक चाहिये। महत्व की बात यह निकलती है कि अकलंकका समय सिद्धिविनिश्चयटीका विक्रमको ७ वी शताब्दी दी माना जाना कई प्रतिहासिक अनन्तवीर्यका दूसरा टीकाप्रन्थ प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय- उल्लेग्यास युक्त प्रतीत होता है और जो अन्यत्र विचागीय है। टीका है और जिसका कुछ परिचय कराना ही यहां २,३,४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ३, ५ न्यायकुमुद प्रथममुख्यत. इष्ट है। भागको प्रस्तावना।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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