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________________ अतिशय क्षेत्र चन्द्रकाड (ले० --पं० परमानन्द जैन शास्त्री) 'न्द्रवाढ अथवा चन्द्रपाट नामका एक करवाया था, जो अब फिरोजाबादके जैन मन्दिरमें प्रसिद्ध नगर जमुना तट पर आगरा- विद्यमान है। और १४वीं शताब्दीमें भी जैन मंदिरों के समीप फिरोजाबादके दक्षिणमें के निर्माण तथा प्रतिष्ठा करानेके उल्लेख प्राप्त चार मीलकी दूरीपर स्थित है जो होते है । आज प्राचीन ध्वंसों-खण्डहरोंके कविवर धनपालने अपने बाहुबलीचरितमें, रूपमें दृष्टिगोचर हो रहा है। कहा जाता है कि जिसका रचनाकाल वि० सं० १४५४ हैं उस समय वि० १८५२ में चन्द्रपाल नामके एक दिगम्बर जैन चन्द्रवाडकी स्थितिका दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है राजाकी स्मृतिमें इस नगरको बमाया गया था, कि, उस समय वहाँ चौहानवंशी राजाओंका राज्य जिसका दीवान रामसिंह हारुल था। चन्द्रवाडमें था और तब उक्त वंशके सारङ्गनरेन्द्र राज्य कर रहे विक्रमकी १४वीं १५वीं शताब्दीमें चौहानवंशी थे, जो संभरीरायके पुत्र थे। उस समय चन्द्रवाड राजाओंका राज्य रहा है। मेरे इस कथनकी पुष्टि या चन्द्रपाट जन धनसे परिपूर्ण था और सुन्दर कविवर लक्ष्मणके 'अणुवइरयणपईव' से भी होती तथा ऊंची-ऊँची अट्टालिकाओंसे सुशोभित था और है जिसका रचनाकाल वि० १३५३ है। उस समय संघाधिप साह वासाधर मन्त्री पदपर प्रतिष्ठित थे, चौहानवंशी राजाओंका राज्य था और इस वंशके जो जायस अथवा जैसवाल वंशी सोमदेवश्रेष्ठीके सात अनक शासक वहाँ हा चुके थे, जैसे भरतपाल, पुत्रोंमसे प्रथम थे। जिनकी प्रेरणा एवं आग्रहसे कांवअभयपाल, जाहड, श्रीवल्लाल और पाहवमल्ल । वर धनपालने 'बाहुबलिचरित' नामके ग्रन्थकी रचना इन राजाओं और इसी वंशके अन्य राजाओंके की थी । कवि धनपालन साहु वासाधरको सम्यक्त्वी, समयमें लंबकंचुक, जायसवाल आदि कुलोंक जिनचरणोंका भक्त, जिनधर्मके पालनमें तत्पर, दयालु, विविध जैन श्रावक गजश्रेष्ठी और प्रधानमन्त्री जैसे बहुलोकमित्र, मिथ्यात्व रहित और विशुद्ध चित्तवाला राजकीय उच्च पदों पर आमीन रहे हैं जिन्होंने बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक देवपूजादि समय-समय पर अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण षट्कोंमें प्रवीण, राजनीतिमें चतुर और अष्ट मूलकिया और उनके प्रतिष्टादि कार्य भी सम्पन्न किये गुणों के पालनमें तत्पर प्रकट किया है । इनकी पत्नीका हैं । इन उल्लेखों परसे चन्द्रवाडकी महत्ताका बहुत कुछ दिग्दर्शन हो जाता है और इससे प्रकट है कि • तही अमयवालु तणुमहवह उ, वणिपट्टकिय भा विक्रमकी १५वीं शताब्दीसे १५वीं शताब्दी तक गग्वइ समज सरगयहंसु, महमंत धवियच-उहाणवंसु । जौनयोंका वहाँ विशेष सम्बन्ध रहा है। वि. मं० सो अभयपालु गारगाह रज्जे, मुपहाणुरायवावारकज्जे । १०५३ में राजा चन्द्रपालने एक प्रतिष्ठा कराई थी, जिणभवण कगयउ तें मसउ, केया रलिझंपियतरणिसेउ । और चन्द्रप्रभभगवानकी स्फटिकर्माणकी फुट कुडापी इग्गाइण्ण वोमु, कलहोय कलसकलवित्तिसोमु । भरकी अवगाहना वाली एक मूर्तिका निर्माण भी च उसाल उतोग्णुसिरिजणंतु, पडमंडकिकिणिरणझणंत।। १ देखा जैन सिद्धान्त भास्कर भा०६ कि० ४ । -अणुवइरयणपईव प्रशस्ति । जातानचाडकीपन कि मकी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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