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________________ ३४४ अनेकान्त [ वर्ष ८ समस्त परम्परागत संमगों-संस्कारोंको भी सुरक्षित है; गुम्बदका यह रूप उसके लिये अपरिचित होनेसे रक्खा । वे स्तम्भ भी जो इन कोष्ठकोंको संभाले वह उसकी निन्दा और खण्डन करने लगता है। हुए, हैं अतीव सुन्दर हैं और रचनात्मक उपयुक्तताको बिल्कुल ठीक यही बात भारतीय स्थापत्यकलाके दसलिये हुए है । इस प्रकार यह सम्पूर्ण रचना स्थापत्य- मेंसे नौ सौन्दर्यापकरणों के साथ लागू होती है। हमयोजनाका इतना कमनीय उदाहरण है जितना कि मेंसे थोड़े ही इस बातको जानते हैं कि प्राचीन निश्चय ही इस युगका कोई अन्य। इस योजनाका (प्रथमवर्गीय) अथवा मध्यकालीन कलाकी प्रशंसा दुर्बल अङ्ग शिखर (गुम्बद) है, जो सुन्दर तो है करनेके लिये शिक्षाका कितना कुछ हाथ रहा है और किन्तु अत्यन्त प्रथानुसारी है। इसमें कोई निर्माणात्मक इसीलिये यह नहीं समझ पाते कि भारतीय शिल्पाउपयुक्तता शेष नहीं रह गई है, और यह मात्र एक कृतियों-सम्बन्धी उनका खण्डन आनुक्रमिक एवं सौन्दर्यापकरण ही होगया है । तथापि यह समझना उपयुक्त शिक्षा के अभावसं ही कितना उद्भूत है। कठिन नहीं है कि इस देश के निवासी क्यों इसके इतने नोट:-यह लेख, बाबू पन्नालालजी जैन अग्रवाल देहली प्रशंसक हैं और क्यों वे इसका उपयोग करते हैं। द्वारा प्रेषित 'All about Delhi' (सब कुछ जब किसी जातिकी दृष्टि अपने किसी ऐसे स्थापत्य में देहली सम्बन्धी) नामक पुस्तकके पृ०२७-४० परसे जोकि ५ या ६ शताब्दियों तक सुरक्षित रहता चला लिये गये अंगरेज़ी उद्धरणोंका अनुबाद है। आया हो, शनैःशनैः होनेवाले क्रमिक परिवर्तनोंसे शिक्षित हई होती है तो उसकी रुचि भी गत अन्तिम --ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए. शैलीके सर्वोत्तम हानका विश्वास करनेकी वैसी आदी इमी प्रसगमें, कलामर्मज्ञ श्रीयुत वैलहाऊसकी जैन होजाती है क्योंकि परिवर्तन इतना आनुक्रमिक स्तम्भ विषयक सम्मति भी अवलोकनीय है, अापका कहना और अनपूर्व हना है कि लोग इस बातका भूल जाते है कि 'जैन स्तम्भोंक सम्पूर्ण मूलभाग तथा शिखर मुकर हैं कि वे वास्तविक मार्गसे कितने दूर भटकते जारहे ललित एवं अत्यधिक ममलंकृत प्रस्तरशिल्पके आश्चर्यजनक हैं। एक यूरोपवासी, जो इस प्रकार शिक्षित नहीं उदाहरण हैं। इन सुन्दर स्तम्भोंकी राजसी शोभा अनुपम हुआ है, केवल परिणामको देखता है, सो भी बिना है, इनके आकार प्रकार चहुँोरकी प्राकृतिक दृश्यावलीके उन पदोंका अनुसरण किये हुए ही जिनके द्वारा वह वह अनुरूप सदैव सर्वथा निर्दोप होते हैं, और उनकी धनी परिणाम प्राप्त हुआ है; इसलिये वह यह देखकर सजावट कभी भी अरुचिकर प्रतीत नहीं होती। दुब्ध रह जाता है कि इसका रूप भवन निर्माण कलाके वास्तविक गुम्बदके रूपसे कितना दर जापडा -(Ind. Art.-Vol. Vp. 39). N PAN - HERE.
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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