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________________ किरण २] हरिषेणकृत अपभ्रंश-धर्मपरीक्षा लेकिन हरिषेणने तुलनात्मक प्रसङ्गमें इस प्रकारको उपरिनिखित तकों को ध्यान में रखते हुए यह कोई शाब्दिक व्युत्पत्ति नहीं की है। देखो २, १८ युक्तिसंगत होगा कि हरिपेण और अमितगात-दोनों ही (४) अमितगतिने 'अहिल' शब्दका प्रयोग किया है। ने अपने सामने की किमी उपलब्ध मूल प्राकृत रचना के देग्यो १३, २३ सहारे ही अपनी रचनाका निर्माण किया है और जहां तक (४) हरिषेणने तुलनात्मक उद्धरणा में 'दिल' शब्दका उपलब्ध तथ्योका सम्बन्ध हे यह रचना जयरामकी प्राकन प्रयोग नहीं किया है। धर्मक्षा रही होगी। जहां हरिपेणने अपनी रचनाके मूल (५) अमितगतिने (१५, २३ में ; 'कचग' कब्दका प्रयोग स्रोतका स्पष्ट संकेत किया है, वहां अमितगति उस सम्बन्ध किया है। में बिलकुल मौन है। यदि कुछ साधारण उद्धरण, जैसे (५) तुलनात्मक कडवक (८, १) में हरिषेणने इस शब्द का पैराग्राफ नं० सीमें नोट किए गए हैं ग्वोज निकाले जाय तो प्रयोग नहीं किया है। इसका यह। अर्थ होगा कि वे किसी साधारण मूल खातसे उल्लिखित परीक्षणमे इस संभावनाका पर्यात निरमन ज्योक त्यों ले लिए गए है। कि अमितगति अपने मूल होजाता है कि अमितगतिने अकेली अपभ्रंश रचनाके अाधार स्रोत के बार में बिलकुल मौन है इसलिए हम सिद्धान्तरूप पर ही अपनी रचनाका निर्माण किया है। इसके सिवाय से नहीं कह सकते कि श्रीमतगातने अपनी पूर्ववती मूल यत्र-नत्र हमें कुछ विभिन्ननाएँ हीमालूम होती है । हरिप्रेगने प्राकत रचनाके मिवाय प्रस्तुन अपभ्रश रचनाका भी (१-८ में) विजयपुरी (अपभ्रंश, विजयउरी) नगरीका नाम उपयोग किया है। दिया है, लेकिन अमितगतिने उमी वाक्य-समहमें उसका (श्राइ) धर्मपरीक्षाका प्रधानभाग पौगांणक कथाअंकि नाम प्रियपुरी' रखा है। दसरे प्रकरणमें हरिपेणने (२.७में) अविश्वसनीय और श्रमबद्ध चरित्र-चित्रण भग पड़ा है। मंगलउ ग्रामका नाम दिया है, जब कि अमितगातने और यह युत. हे कि पुगण। और स्मृतियोक व पद्य पूर्वपक्षके रूप (४,८ में) उसे संगालो पहा है । मैं नीचे उन उद्धरणीको में उक्त कार, जाले । उदाहरण के लिए जिस तरह हरिभद्रने दे रहा हूँ। मुझे तो मालूम होता है कि अमिनगनि और अपने प्राकृत धूनाख्यानमें संस्कृत पद्योंको उद्धत किया है हरिपे एके द्वारा मूल प्राकृत के उद्धरण गौड़म हेरफेरन साथ और इस बानको पूर्ण संभावना है कि जयरामने भी अपनी समझ लिए गए हैं। धर्मपरीक्षामें यही किया होगा। इरिगंगा की धर्मपरीक्षा में भी एक दर्जनमें अधिक संस्कृत के उद्धरण हैं और ये तुलनामें हरिपेणकृत धर्मपरीक्षा २, ७-- अमित गनिकी धर्मपरीक्षाके उद्धरगग की अपेक्षा अधिक तो मावेउ भणइ मुक्ग्वाल उ मूल्यवान है, क्योंकि अमितगतिने इन पद्योंका मनचाही अत्यि गामु मलए मंगाल उ । स्वतंत्रता के साथ उपयोग किया है। एक प्राकृन और अपभमरु णामि तहि शिवसइ गिहवइ भ्रंशका लेखक उन्हें उमी नरद सम्यता. जैसे कि वे परंपरागसे तासु पुन णामें महुयरगइ । चले श्रारहे थे, लेकिन जो व्यक्ति अपनी रचना संस्कृत में अमितगति-धर्मपरीक्षा ४,७ बी-८ कर रहा है वह उन्हें अपनी रचनाका दी एक श्रङ्ग बनाने उवाचेति मनोवेगः श्रूयता कथयामि वः । की दृष्टि मे उनमें यत्र-तत्र परिवर्तन कर सकता है। अमितदेशो मलयदेशोऽस्ति संगालो गलितामुग्वः । गतिने इन पद्याको 'उक्तं च' आदि के साथ नहीं लिखा है। तत्र गृहयते: पुत्रो नाम्ना मधुकगभवत् ।। दम नीचे दरिषणके द्वारा उद्धत किए गए यह पद्य दे रहे १ प्राकृत नाम वियाउरी रहा होगा। है और साथ में अमितगतिक पाठान्तर भी। इससे मूलका २ यह भेद स और म-जो प्राकृत (हस्तलिम्वित) में करीब पता लगाना मुलभ होगा। यह ध्यान देनेकी बात है कि इनमें करीब एकसे मालूम होते हैं-के वर्ण-विन्यास सम्बन्धी के कुछ पद्य सामदेवकी यशस्तिलक-चम्पू(ई. स.६५६) संदेहसे उत्पन्न हुश्रा प्रतीत होता है। में भी उद्धरण के रूप में विद्यमान हैं।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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