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________________ 8x अनेकान्त [वर्ष ८ (१) हरिषेणकृत धर्मपरीक्षा ४, १ पृ० २२ (नं. स्वामिन् सत्यमिदं न हिमियतमे सत्यं कुत: कामिनां १००६ वाली हस्तलिखितका तथा चोक्तम् इत्येवं हरजाहागिरिसुतासंजल्पनं पातु वः ।। मत्स्य: कुर्मो वराहश्च नारमिहोऽय वामनः । अमितगतिकी रचनामें इस पद्यकी तुलनाका कोई पद्य गमो गमश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्कीच ते दश ।। नहीं मिला। अक्षराक्षरनिमुक्तं जन्ममृत्युविवर्जितम् । (५) हरिषेणकी घ०प०, ४, १२, पृ० २५ ए-- अव्ययं सत्यसंकल्यं विष्णुध्यायीन सीदति' ।। अङ्गल्या कः कार्ट प्रदर्गत कुटले माधवः किं वसंतो इन दो पद्यों को अमितगनिने निम्नलिखित रूपमेंदिया है नो चको कि कुलालोन हि धर्गणधर: द्विजिह्वः फणीन्द्रः । व्यापिनं निष्फलं ध्येयं जरामरणसूदनम् । नाई घोगदिमा कि.माम खगपति! हरि: कि कपीश: अच्छेद्यमव्ययं देवं विष्णुं ध्यायन्न सीदति ॥ इत्येवं गोपवध्या चतुरमभिहित: पातु वश्चक्रपाण: ।। मीनः कुर्म: पृथुः पात्री नारमिहोऽथ वामनः । अमितगति इस कोटिका कोई पद्य प्राप्त नहीं कर मकै । गमोगमश्च कृष्णाश्च बुद्ध: कल्की दशस्मृताः ॥१०,५८-६ (६) हरिषेण ध० ५० ५६, पृ० ३१ ए-तथा चोक्तं तेन(२) हरिषेण की धर्मगंज्ञा, ४, ७, पृ० २४ अश्रद्धयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि यद्भवेत् । श्रपत्रस्य गतिर्गस्ति स्वगों नैव च नैव च । यथा वानरसंगीत तथा सा प्लवते शिला ॥ तस्मात् पत्रमुग्वं दृष्ट्वा पश्चाद्भवनि भिक्षक:२॥ अमितगतिके इन दो पद्यासे भी यही अर्थ निकलता हैअमितगतिका पद्य निम्न प्रकार है यथा वानरसंगीतं त्वयादर्शि बने विभो । जपुत्रस्य गतिनास्ति स्वर्गो न तपसो यतः। तरन्ती सलिले दृष्टा मा शिलापि मया तथा ॥ तत: मुत्रमुग्वं दृष्ट्वा श्रेयसे क्रियते तपः ॥ ११,८ अश्रद्धयं न वक्तव्यं प्रत्यक्षमपि वीक्षितम् । (३) दरिषणकृत घ० १०,४,७ पृ. २४ जानानैः पण्डितेन नं वृत्तान्तं नृपमन्त्रिणों: ।।१२,७२-३ नष्टे मृत प्रबजिते क्लीवे च पतित पतौ। (७) हरिपेण--धा) प०, ५, १७ पृ० ३४-- पञ्चस्वापत्सु नागण। पतिरन्यो विधीयते ॥ भी भी भगत पल्लवलोनित उल्लिवित पासे श्रमितमतिके दम पद्यके साथ तुलना बन्धूकपुष्पदलमन्निभनोहिताक्षे। की जा सकती है-- पत्यो प्रवृजित क्लीबे प्रनष्ट पतिते मृते । पृच्छामि ते पवनभोजनकोमलाङ्गी पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्या विधीयते ॥ ११, १२ काचित्त्वया शरदचन्द्रमुग्वी न दृष्टा (४) हरिवणकृत घ० १०, ४, ६, पृ० २४ ए. अमित गतिकी रचनामें इसकी तुलनाका कई पद्य नहीं है। का त्वं सुन्दरि जाहवा किमिह ते भागेनन्वयं (८) हरिषेणकृत ध० १०.७, ५, पृ० ४३अम्भस्त्वं किल वेनि मन्मथरस जानात्ययं ते पतिः। अद्भिर्याचारि दत्ता या यदि पूर्ववरो मृतः । १ इन उद्धरणाम हमने केवल इधर-उधर की घसीटकी अशु सा दक्षतयोनि: स्यात्पुनः संस्कारमई ति" ॥ दियों को ही शुद्ध किया है। यद्यात अर्थ में थोड़ा सा अन्तर है फिर भी उपगिलिखित २ यह पद्य यशस्तिलकचम्पू ( बम्बई १६०३ ) के उत्तरार्ध पद्यकी अगितगति के अधोलिखित पद्यसे तुलना की जा सकती है-- पृ. २८६ में है। ३ यह पद्य पाराशरस्मृति १,२८ से मिलता-जुलता है अर ४ यह पद्य कुछ पाठ-भेद के साथ सुभाषितरत्नभाण्डागारममें इसे मिरोनोने अपनी दी धर्मपरीक्षा में पृ. ३१ पर संगृहीत है। प्रकरण है दशावतार, पृ० सं० ३८, पद्य उद्धत किया है। इसका मनुसे भी सम्बन्ध मालूम होता है और सं० १६६ (बम्बई १८६१)। यह स्मृतिचन्द्रिकामें भी है। देखिए, मनुस्मृतिका साप्ली- ५ प्रकरणानुमार वाशिष्टस्मृतिका १७,६४ पद्य भी इससे मैपट, गुजराती प्रेस संपा० बम्बई १६१३ पृ.६ पद्य १२६ मिलता-जुलता है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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