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________________ ४५६ अनेकान्त [ वर्ष ८ संवत् ७३८ में होचुकी थी। इस प्रकार जयधवला ही लेखकके द्वारा विरचित होनेपर भी धवला और धवलासे २१ वर्ष छोटी है। जयधवलाम स्थान-स्थानपर पार्थक्य है। इन्हीं - इस टीकाकी रचना धवलाकी तरह मणिप्रवाल आगम ग्रन्थोंका आश्रय लेकर कालान्तरमें विद्वानोंने शैलीपर की गई है । इस ग्रन्थमें प्राकृत और संस्कृतका नवीन ग्रन्थोंकी रचना की। इन्हीं तीनों ग्रन्थोंका मिश्रण है । धवलाकी अपेक्षा यह टीका प्राकृतबहुल है। मारांश आचार्य नमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने अपने इसमें प्रायः दानिक चर्चाओं तथा व्युत्पत्ति आदिमें विख्यात ग्रन्थ “गोम्मटसार” तथा “लब्धिसारही मंस्कृत भाषाका उपयोग किया गया है । जैन क्षपणासार" में प्रस्तुत किया है । ये संग्रहग्रन्थ सिद्धान्तके प्रतिपादन के लिये प्राकृतका ही अवलम्बन प्राकृतगाथानिबद्ध हैं जिनमें जीव, कर्म तथा कर्मों के किया गया है। यह टीका इतनी प्रौढ़ तथा प्रमेय- क्षपण अथवा नाशका सुन्दर किन्तु गृढ वर्णन है । बहुला है कि लेखकोंका अमाधारण पाण्डित्य तथा इतने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अबतक मृडविद्रीके जैन अगाध विद्वत्ता किसी भी आलोचकको विस्मयमें भण्डारमें हस्तलिखित रूपमें पडे थे । यह जैन डाल देती है। भण्डार कर्णाटक दशमें है। वहाँके अधिकारियोंकी ____ इस प्रकार दिगम्बर जैन आगमकी जीव और कृपासे अब ये प्रकाशमें प्रारह हैं । धवलाका प्रकाशन कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी दो धागये म्फुटतया अमरावतीस होरहा है। जयधवलाका मथुरासे तथा लक्षित होती हैं । पहली धारा पटखण्डागम- महाबन्धका काशी भारतीय ज्ञानपीठसे। इन ग्रन्थ मे लक्षित होती है और दृमरी कमायपाहुडमें । रनोंका प्रकाशन जैन आगमोकं अध्ययनके लिये मृलग्रन्थों में सिद्धान्तकी विभिन्नता होने के कारण एक नवयुगका सूचक है। त्रिभवनगिरि क उसके विनाशके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश (लेग्यक--- अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके गत १०-११वें अङ्क पं० परमानन्द होगया था उसे म्लेच्छाधिपने घेरा डालकर नष्ट भ्रष्ट जीका 'कविवर लक्ष्मण और जिनदत्त चरित्र' कर आत्मसात कर लिया था। परन्तु प्रशस्तिपरसे शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। उममें आपने कविके यह मालम नहीं होता कि यह स्थान कहाँ था और मूल निवास स्थान त्रिभुवनगिरि व उसके विनाश किम म्लेच्छाधिपने वहाँ कब्जा किया था उस समय सम्बन्धी कविके उल्लेखका निर्देश करते हुए लिखा है सम्वन क्या था और उससे पूर्व वहाँ किसका राज्य कि 'ये मातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार था आदि । और न अन्यत्रसे इसका कोई समर्थन सहित पहले त्रिभवनगिरिपर निवास करते थे (उम होता है।" समय त्रिभुवनगिरि जन-धनसे समृद्ध तथा वैभवसे त्रिभुवनगिरिका उल्लेख श्वे. माहित्यमें भी आता युक्त था; परन्तु कुछ समय बाद त्रिभुवनगिरि विनष्ट है और खरतरगच्छके प्रभावक आचार्य जिनदत्तसूरि जीन वहाँक राजा कुमारपालको प्रतिबोध दिया था एकोनषष्टिममधिकमप्तशताब्देसु शकनरेन्द्रस्य । इसका उल्लेख सं० १२९५ रचित गणधरसार्द्धशतक समतीतेसु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ वृहद्धत्तिमें आता है अतः कई वर्ष पूर्व हमने अपने -जयधवलाकी प्रशस्ति । ऐतिहासज्ञ मित्र डा० दशरथ M. A. महोदयको इस
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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