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________________ किरण १ जैन सरस्वती रामने ही पहले पहल इस वानर-महाद्वीपमें प्रार्य प्रगति प्रदान की हो, परन्तु उनके द्वारा द्वीप में उसका मभ्यताका प्रकाश फैलाया है और यही उनके जीवनकी सब भाद्य प्रवेश नहीं बनता। से अधिक महत्वशाली घटना है, वह जैन पुराणों की दृष्टि से कुछ सगत मालूम नहीं होगी। जन पुराणों के अनुसार भाशा है प्रो० मिहल जी तथा दूसरे खोजी विद्वान भी वानर महाद्वीपमें आर्य-सभ्यताका प्रवेश श्रीकण्ठ राजाके जैनपुराणों की इन बातों को ध्यानमें रखते हुए खोके द्वारा हुआ है, जिसे उसके उत्तरवर्ती राजाओंने वृद्धिंगत कार्य में अग्रसर होंगे । जैनपुराणोपरम उन्हें रानणादि की किया है। और यह वहाँकी बदी हई अनेकमुखी प्रायं- विद्वत्ता, नीतिमत्ता, धार्मिकता, सभ्यता और कार्यकुशलता सभ्यताका ही प्रताप था जो श्रीरामको हनुमानजी जैसे भादिके कितने ही नये हालात भी मालूम होसकगे। पुद्धिमान, बलवान, कार्यकुशज एवं सयोग्य साथियोंकी माय ही, राक्षमवंश क्या था, कैप उसकी उत्पत्ति हो और सम्प्राप्ति होपकी थी। हो सकता है कि कालके प्रभावसे माली, सुमाली, माल्यवान कथा नल-नीलादि व्यक्ति किम हार्यमापनाको भी मचाने वाली स्थितिमें थे. इन बातोंका भी कितना ही पता चल सकेगा। जैन सरस्वती (लेग्वक-वा. ज्योतिप्रसाद जैन 'विशारद' एम० ए०, एल-एल० बी० ) जै | न देवी-देवनामि ज्ञानकी अधिष्ठात्री सरस्वती तामें लीन, स्व-पर कल्याणम तर, निस्पृह, निन्य देवीका एक विशिष्ट स्थान है। अन्तिदेव के माधुअोंके रूप में मच्चे गुरू, इन तीनों की अाराधना-सामना अतिरिक्त जैन धर्म में मान्य जितनी श्रन्य देवी- है। इनके अानाका अन्य जितने देवी-देवता है वे गगीदेवता है, अर्थात् शासन देवता, यक्ष, यक्षिणी मोही अल्पज्ञ दानेसे अपृज्य हैं। उनकी पृजा-उपासना-द्वारा क्षेत्राल, दिकपाल, नवग्रह, योगिनी, अष्ट- परमार्थका सिद्धि नहीं हो सकती, अत: यद्याप जैन मन्दिरीम मात्रिका, प्रासाद, देनयाँ सम्प्रदाय-देवियाँ, कहीं कहीं अहन प्रानभायांक माय माय अन्य देवी-देवकुल-देवियों इत्यादि, उन सबमें वाग्देवी सरस्वती ही सर्व- ताश्रीको मृनिया भी प्रनिनि देखा जानी है तथापि उनकी प्रधान है। इनकी पूजा-प्रतिष्ठा भी उक्त सर्व देवी-देवताओं पूना-उपासना का कोई प्रात्मादन नही दिया जाता, उम से पहिले की जानी है। प्रायः य ६। माना जाना है। वास्तव में तो जैनधर्म आत्म-प्रधान है इसका लक्ष्य किन्तु वाग्देवी सरस्वती के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। मोक्षप्राप्ति हे जा कि मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र- इस देवीको पृना-उपासनाका फल श्राचायान सम्पदर्शनरूप रत्नत्रयको मापना-दाग दी संभव है, और इस साधना ज्ञान-चारित्र श्रादि अात्मीक गुगका उपलभिवृद्धि-विशुद्धि में सर्वप्रधान सहायक निमिन मर्वज्ञ-वीनगग-दितापदेशी प्रतिपादन किया है' । दरअसल यह कदना क टन है कि अन्न के रूपमें सच्चे देव, उक्त अन्ति-द्वारा उपदेशित क्या प्रारंभ जैन श्रतज्ञानको दी अलमारक भाषामं श्रुतअहिमा प्रधान, मोक्षमार्ग-निदर्शक पूर्वापर-अविरुद्ध सम्य- देवीका नाम देदिया गया और कलाकारने मूर्तिक में शान के प्रतिपादन करने वाले कंचे शास्त्र, तथा अन्तिदेव १ विद्याप्रिया: पोडश विशुद्धि पंगगमान्त्यिकदर्थगगाः । के पदानुसरण कर्ता, संसार-देह-भोगास विरक्त, ज्ञान ध्यान- इत्यादि -अाशाधर-प्रानष्ठामाराद्वार ३-३२
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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