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________________ ६२ अनेकान्त [ वर्ष ८ से ही इस धर्म के देवसमूहमें अपना स्थान बनाये हुए हैं'। मथुरा ककाली टीलेसे प्राप्त सरस्वती प्रतिमा इस बातका उदार है और प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व के मध्य में जब श्राचार्य घरसेन स्वामीने अपने पास अध्ययन के लिये जाने वाले शिष्यद्वयके खानेका पूर्वाभास स्वप्नमे पाया तो उनके मुख से यह शब्द निकले थे कि "श्रुतदेवता अपवस्त हो" (जय सुपदेवदा)। देवता समस्त अंग पूर्वरूप द्वादशांग का समावेश है, जैसा कि श्राचार्य वीरसेन के निम्न वाक्यसे भी प्रकट है-बारह अंगग्गिज्मा विर्यालय मल-मूड दंसतिलया । विविध वर चरणभूमा पसियड सुयदेवया सुइरे ॥ (घवला ) श्रस्तु सरस्वती देवीकी मान्यताको प्राचीनतामें तो कोई सन्देद है दी नहीं इस देवकी विष्ट वार्षिक पूजा दिग । म्बर सम्प्रदाय में श्रुतावतारकी वर्षगांठ के उपलक्ष में ज्येष्ठ शुक्ला ५ ( श्रुतपंचमी) के दिन होती है और रक्ताम्बर सम्प्रदाय कार्तिक शुक्ला ५ ( ज्ञानपंचमी के दिन इस अवसर पर धार्मिक ग्रन्थोंकी जचिपड़ताल, झाड़-पछि सफाई उत्पाद तथा नवीन वेष्टन वेष्टित कर सन्दली पर सजा कर सामूहिक पूजन की जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनाचार्याने सरस्वती मूर्ति के निर्माण और पूजा-प्रतिष्ठाका विशेष प्रोत्सादन नहीं दिया, उसकी मूनके स्थान भात (खर्गात्मक) तथा व्यभूत (शब्दात्मक तथा रचनावद) ज्ञान अर्थात् नीर देव द्वारा प्रतिपादित और गण द्वारा द्वादशाङ्गवन्ति शान के आधार पर चतुरानुयोगान्तर्गत चन जैन शास्त्रसमुदायको ही उन्होंने सरस्वती अथवा श्रुतदेव के रूप में प्रतिष्ठित किया। बहुत संभव है उन्होंने ऐसा इसका किया हो कि कहीं जनता पाषाणादिकी सरस्वती प्रतिमाके पूजा-पाठ संबंधी क्रियाकांड में उलझ कर ज्ञान-विमुख नहो जाय, ज्ञानाभ्यास न छोड़दे । श्रतः सरस्वतीको आराधनाका स्वरूप यही बताया जाता रहा है कि शास्त्रोपदेश, शास्त्रश्रवण, स्वाध्याय और शाम्बान्यास दोनदेवताको वास्तविक ३ V. S. Agarwal - Guide to the Arch. Sec, of the Lucknow Prov, Museum. ४पागम १ १ १ ० ६८ उसकी साकार श्रभिव्यञ्जना करदी, श्रथवा वह यक्षिणी, योगिनी श्रादिदेवियांकी भाँति भवन वासी, व्यन्तरादि देव जातिय कमी देवी है। जनग्रन्थ मोदविद्यादेवियांका वर्णन मिलता है जिनके नाम है शांकुशा, अम्बुदा पनिका पुरुषदना, काली, महाकाली, मोरी, गांधारी, मदाज्याला या आनमानिनी, मानवी वेंगटी, अना, मानमी और महामानमी इन सालों विद्यादेवियोंकी अधीश्वरी सरस्वती देवी है। श्री, भारती, तदेवी वाग्देवी माझा वा बाद इस देवी अन्य अनेक नाम हैं । सरस्वती-मदिन ये सब विद्यादेवियां यूनानी 'म्यून' (Muse) नामक देनिक मित्र कलाओं भाँति भिन्न और विज्ञानका पृथक पृथक नहीं करती बल्कि सामु दिवरूपसे जेनतकी अर्थात् समस्त जनसाहित्यका पात्र एवं राज्ञा है और वर्तमान में उलब्ध नसल्य जैनसहित्य बहुत विशाल दोन हुए भी पूर्ण अपां मात्र ही है। 1 श्वेताम्बर ग्रंथ 'श्राचारदिनकर' (ध) के अनुसार देवियां तीन प्रकारको होती है-- प्रासाददेवी कुलदेवी, और साम्प्रदाय देवी सरस्वती तथा विद्यादेवियाँ तीसरे भेद अन्तर्गत आती है। सम्बन्धित साथ रूप और ये देविय योग अनेक २४ शामनदनिय (पक्षियों से कई एक ) नामादिका अद्भुत सम्पती है। उक्त यक्षियोंग सर्वथा भिन्न ही हैं। और यदि साहित्य यज्ञियाका उल्लेख अत्यन्त प्राचीनकाल से ही मिलता है तो साहित्य तथा कला दोनों ही सरस्वती भक्ति भी उसी समय से मिलती है। डा० वासुदेवशरण जी अग्रवालकी राय है कि देवी जैन धार्मिक कला के प्रारम्भ काल १] प्रतिष्ठासामेद्वार | २ "वावासी भारती गौणी भाषा सरस्वती । श्रुतदेवी वचनं तु व्यावभषितं वचः ॥१-२४१ -- श्रभिधानचिन्तामणि, हेमचन्द्राचार्य
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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