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________________ किरण ३] भगवान महावीर कराने के लिये सर्वथा इंकार कर दिया, क्योंकि वर्द्धमान ही वैर ग्यशील थे । उनका अन्त:करण प्रशान्त और अपना आत्मविकास करते हुए जगतका कल्याण करना दयास भरपूर था, वे दीन दुखियोंके दुःखोंका अन्त करना चाहते थे। इसी कारण उन्हें सांपरिक भोग और उपभोग चाहते थे। अब उनकी अवस्था भी तीस वर्षकी होगई थी अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य वैभव में पले और रह अत: प्रारमोत्कर्षकी भावना निरन्तर उदित होरही थी जो रहे थे किन्तु वह जल में कमल वत रहते हुए उसे एक अन्तिम ध्येयकी साधक ही नहीं किन्तु उसके मूतरूप काराग्रह ही ममम रहे थे। उनका अन्त:करण मांगारिक होनेका का प्रतीक था। अत: भगवान महावीरने द्वादश भोगाकांक्षाओंसे विरत और लोक कल्याण की भावनास भावनाओंका चिन्तन करते हए संसारको भनिन्य विं श्रोत प्रोत था। अत: विवाह सम्बन्धकी चर्चा होने पर उसे अशरणादिरूप अनुभव किया और राज्य-विभूतिको छोर अस्वीकार करना समुचित हीथा। कुमार बर्द्धमान स्वभावतः कर जिन दीक्षा लेनेका बढ़ संकल्प किया। उनकीबोकोप२ श्वेतान्बरों में भगवान महावारक विवाह-सम्वन्धमें दो पकारी इस भावनाका लौकाग्निक देवोंने अभिनन्दन किया मान्यता है विवादित और अविवाहिता कलामत्र और और भगवान महावीरने ज्ञातखण्ड' नामक वनमें मंशिर अावश्यक भाष्य की विवाहित मान्यता है। और आवश्यक कृष्णा दशमीके दिन जिन दीक्षा ग्रहण की बहुमूल्य नियुक्तिकार भद्रबाहु की अविवाहित मान्यता है, देखो, वस्त्राभूषणोंको उतारकर फेंक दिया और पंन मुट्टियोस श्वेताम्बरोम भी भगवान महावीरक अविवाहित होने की अपने केशीका भी लोचकर डाला। म तरह भगवान मान्यता' शीर्षक मेरा लेग्व अनकान्त वप ४ किरण महावीरने पर्व पोरसे निर्ममत्व एवं निस्पृह कर दिगम्बर ११-१२- पृ० ५७६ मुद्रा धारण की। श्रावश्यक नियुक्तिकी गामायाग विसया जे भुना तपश्चर्या और केवलज्ञान कुमाररहिएदि' वाक्यमें कुमार नार्थकगको छोड़कर शेष भगवान महावीरने अपने नपस्वी जीवनमें अनशनादि तीर्थकरोंका भोग भोगना सूचित किया है । अतः नियुक्ति- द्वादश प्रकारके दुष्कर एवं दुर्धरतपों का अनुष्ठान किया। कारकी यह मान्यता दिगम्बर परम्परा के समान दी है। घोर एवं हिंस्त्रज तुओंप भरी हुई अटवी में बिहार किया परन्तु कल्पसूत्र गत समरवार गजाकी पत्री यशोदामे तथा डांस मच्छर, शीत उणा और वर्षादि जन्म घोर विवाद-सम्बन्ध होने और उससे प्रियदर्शना नामकी लड़की कटोको महा। ग्राम, खेट कर्वट और बन मटम्ब दि अनेक के उत्पन्न होने और उसका विवाद नामालिके माग कग्ने स्थानों पे मौनपूर्वक उग्रोग्र तपश्चरणीका अनुष्ठान एवं की मान्यता के उद्गम् का मूलाधार क्या है ? यह कुछ १ श्वेताम्बर्गय ग्रन्थों में दीक्षा लेने के बाद इन्द्र के दाग मालूम नहीं होता, और भगवान महावार के दीक्षित होनेसे दिये हुए 'देवदूष्ण' वनके १३ महीने तक बायें कन्धेर पूर्व एवं पश्चात् यशोदाके शेष जीवनका अथवा उसकी पड़े रहने और उसमें से प्राधा फाडकर एक गरीब ब्राह्मगा मृत्यु आदिके सम्बन्धमे कोई उल्लेग्न श्वे. मादित्यम को देने का उल्लेख पाया जाता है। उपलब्ध नहीं होता है जिससे यह कल्पना भी निष्प्राण २ श्वे०मम्प्रदायमें आमतौरपर तीर्थकरका मानपूर्वक तपश्चरण एघ निगधार जान पड़ती है कि यशोदा अल्पजीवी थी का विधान नहीं है। किन्तु उनके यहां जहां तदा छद्मस्थ और वह भगवान महावीर के, दीक्षित होने से पूर्व । अवम्या में उपदेशादि देनेका उल्लेख पाया जाता है। दिवंगत होचुकी थी। अत: उसकी मृत्यु के बाद भगवान परन्तु श्राचागंग सूत्रके टीकाकार शालाने माधिक बारद महावीरके ब्रह्मचारी रद्दनेसे वे ब्रह्मचारी रूपमें प्रसिद्ध दो वर्ष तक महावीर के मानपूर्वक नमश्रा का विधान किया गए थे; क्योकि श्रावश्यक नियुक्तिका २२२ की गाथामें है वे वाक्य इस प्रकार है-नानाभवाभिग्रहापेती प्रयुक्त 'कुमारवातम्मि पव्वइया' वा में भगवान महावीर घोरानपरीषदीपमानांध महमानी महामत्वतया म्लेच्छानके कुमार अवस्था में दीक्षित होने से इस प्रकार की मन 'युपशमं नयत् द्वादशवर्षाणि माधिकानि क्षमस्थो मौनगढन्त एवं भ्रामक कल्पनाअोका काई मूल्य नहीं रहता। व्रती तपश्चचार ।"-अाचागंगवृत्ति पृ. २७३।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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