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________________ किरण ६-७] विविध-विषय २६३ डालनेवाली घृणित जातिकी साम्प्रदायिकता तथा व्यकिगत का अाधार मनुष्यका पाचरण है । जैन या जितेन्द्रियको स्वार्थसाधनकी भावनाकी गंध पाती प्रतीत होती है। अपनी सफलताके संबंधमें विचार करते समय सोचना हमारी समझमें तो यह उनका एक भ्रम ही है, इससे ऐसी चाहिये कि उसने संयमधर्मका कितना पालन किया ? यह कोई बात फलित नहीं होती। प्रथम तो, इन प्रयत्नों और प्रामानुभवकी चीज़ है: वाद्याडंबर तो बहत दीखता है, इनके बलको देखते हुए इनकी सफलता और महत्व भी तिलक छापे करना, मन्दिरों में जाना, जात्रायें करना आदि बहुत कुल सन्दिग्ध ही है, और यदि इनमें कुछ सफलता सब धर्मकी मर्यादा कहलाती हैं, ये सब धर्मको समझने के मिलती भी है और उसका जैनी कुछ यथोचित लाभ भी लिये हैं. लेकिन प्रात्मानुभव या संयमको छोड़कर यदि उठा पाते हैं तो उसमे सम्पूर्ण राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय महासभा केवल बाह्य आडंबरोंको ही जो धर्म मानता है वह केवल के हितों और उद्देश्योंका विरोधी होनेकी तो कोई संभावना नामाका ही जैन है, वह सच्चा जैन नहीं कहला सकता। ही नहीं है । हो, उनके स्वाभिमान एवं प्रारमविश्वासमें 'अहिंसा परमोधर्मः' यह तो जैनोंका सर्वोपरि सिद्धान्त है; अवश्य ही वृद्धि होजायगी और वे भी अपने आपको नव- इसका जिये अच्छी तरह ज्ञान हो वह भी दुकानपर कार्य निर्मित सर्वतंत्र स्वतन्त्र प्रजातन्त्रात्मक भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्र करते समय अावाज़ सुने कि 'हुल्लड़ हुश्रा गुण्डे भारहे हैं' सम्मानित नागरिक एवं श्रङ्ग अनुभव करेंगे। और मनते ही माला क फांक कर भागने लगे, उसे जैन नहीं कह सकते। सने तो अपने पासके परिग्रहको सस्यरूप सच्चे साधु और सामान्य भिक्षुक-कुछ प्रान्तीय समझा और भर की वजहसे भागा, इसको ही भीस्ता कहते सरकारों द्वारा पास किये गये भिक्षावृत्तिनिरंधक कानूनों के हैं। किसी भी धर्ममें कायरता नहीं हो सकती है, जैन धर्ममें संबंधमें एक जैन डेपुटेशनसे भेंट करते हुए, विधानपरिषदके तो हरगिज़ नहीं। डनी कोई भी हिंसा भले ही न करे, सदस्य श्रीयुत् रघुनाथ वि० धुलेकर एम. एल. ए. ने परन्तु उसमें स्वयंको होमदेनेकी शनि तो होनी चाहिये । श्राश्वासन दिया कि-'जैनसाधु अथवा सनातनी सन्यासी इसके बिना सिद्धान्तकी क्या कीमत ? जैनमें तपश्चर्या और कोई भी सामान्य भिक्षुक नहीं है। मुझे यह विश्व स है कि श्रामशुद्धि की वह शक्री होनी चाहिये कि जिसे देखकर प्रान्तीय सरकारें ऐसे साधुओं और सन्यासियोंको जो हिन्दू गुरुदेक हाथ से हथियार नीचे गिरजाय । श्राज तो महात्माजी समाजका एक श्रावश्यक भाग है, बाधा पहुंचाने वाला अहिंसा धर्मका सेवन कर रहे हैं और हिंदके समक्ष सन्य कानन न तो बनावेंगी और न बना सकती हैं। इन साधुओं पदार्थका पाठ रख रहे हैं। अपनी दृष्टि दूषित हो जीभको की परम्परा कई सहस्र वर्षसे चली आती है, जिनके अनुसार झूठ बोलनेकी आदत हो, हृदय मलिन विकारोंसे परिपूर्ण हिन्दू परिवारोंमे भिक्षा मांगना भिक्षावृत्ति नहीं, वरन धार्मिक हो, तो बाह्य आचरण भाररूप हो जायगा, बाह्य शुद्धिके अधिकार एवं कर्तव्य है। मैं श्राको विश्वास ला सकता साथ साथ अन्तरङ्ग शुद्धि भी करनी चाहिये।' हूँ कि कांग्रेस सरकार हिन्दू संस्कृतिको सामान रूपसे तथा जैन संस्कृतिको विशेष रूपसे नष्ट करनेवाली नहीं है, वह -२३ जनवरीको भारतवर्ष में सर्वत्र इन कान नोंको लागू करने में इस बातकी वरय व्यवस्था तथा लन्दन श्रादि विदेशों में भी नेताजी श्री सुभाषचन्द्रकरेगी कि साधारण भिखमंगों तथा सच्चे साधुओं एवं बोसका ५१ वा जन्मदिवस सोसाह मनाया गया। स्वयं सन्यासियों में विभेद किया जा सके । श्राप प्रान्तीय सेम्बली गांधीजीने भी नेताजीके प्रति अपनी श्रद्धांजली अर्पितकी। तथा विधान परिषद में इस विषय में मेरे समर्थनका विश्वास किन्तु अभीतक यह प्रश्न एक विकट पहेली ही बना हश्रा रक्खें ।' है कि सुभाष बाबू जीवित हैं अथवा नहीं? सरदार पटेलका उदाधन-गत २६ दिसम्बरको स्वतन्त्रता दिवस-२६ जनवरीको समस्त भारतमें अहमदाबा.में एक जैन विद्यालयका उद्घाटन करते हुए स्वाधीनता दिवस मनाया गया जो सन् १९३० से निरन्तर सरदार बल्लभभाई पटेलने कहा था कि-"जनोंकी परीक्षा प्रतिवर्ष भारतीयोंको अपनी स्वतन्त्रता प्राप्तिके ध्येयकी याद
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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