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________________ १२४ अनेकान्त [वष ८ जैसा भेद-प्रभेद वर्णन यहां मिलेगा वह अन्यत्र है ही (.) संपारमें जहां अपने अपने धर्म और धर्मप्रचारक नहीं। मनुष्यों के किन परिणामोंपे कौनसे कर्म बंधते हैं, को ही सत्य और मचा धर्म माना और दूसरेको अधर्म उनकी सत्ता, उदय, रसदानक्रिया या फलोंका उदय सममा वहां जैनधर्मने कहा नहीं जी, वे भी एक दृष्टि मादिका ब्यौरेवार वर्णन आपको यहां मिलेगा। सच्चे हैं और धर्मके एक अंशका प्रतिपादन करते हैं उसे (२) दुनियामें मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती जहां कफ या यह रष्ट उसके स्याद्वादनयकी न्याटप प्राप्त हुई - मिथ्यात्वका बढ़ाने वाला और खुदाकी राह भटका देने इस तरह जैनधर्म पर्व-धर्म-समन्वयका क मात्र स्थान है वाला माना गया वहां जैनधर्मने सिद्धासन ध्यानावस्थाको यह हर पदार्थको भिन्न २ पहलूमे समझनेका माद्दा या मूर्तिको इस रंगविरंगे संसारकी चित्रशालामें हमें ध्यान योग्यता प्रदान करता है, इत्यादि। लगाने और योगावस्थाकी ओर खींचने के लिये गास्थों को इस तरह दुनिया देखेगी कि हम युग में जिस वीर अत्यावश्यक और अध्यात्म रसमें तीन साधुओंके लिये वाणीक सर्वथम प्रगट होमको जो इतना महत्व दिया जा अनावश्यक करार दिया। रहा है उसका कारण उनकी वाणी द्वारा प्रगट ऐमी प्रमा (६) इसी तरह दुनियामें देखने में बाता किया. धारण, अपूर्व, तर्क, विज्ञान और न्यायकी कसौटी पर खरा इयोंमें जब कोई मर जाता है तो मर्दैको अच्छे सहन उतरने वाले बुद्धिगम्य अकाट्य क्रांतिकारी सिद्धांत हैं जो फुजेलसे सुसज्जित करते हैं और उसकी मात्माको शांति सारे संपाको चेलेंज देने के लिये अपनी शानके इकता कहे मिले इस लिये पादरी साहब वाइविलसे प्रार्थना पढ़ते हैं। जा सकते हैं ये तो बहुत सी बातों में से कुछ नमूने है जो इसी तरह मुस्लिमोंमें मृतक शरीरको कलमा पढ़ कर मार वीर-शामन के गौरवको प्रदर्शित करते हैं। किया जाता है और उसके लिये दुआएँ पढ़ी जाती है। क्या ही अच्छा हो इन्हीं याऔर कोई खास खाम हिंदुओंमें भी मरने पर 'राम नाम सत्य है सत्य बोलो विशेषताओंको खुदा कर वीर प्रभुके अपूर्व प्रथम धर्मगति है' की रट लगाई जाती है। जैनधर्म इसे ऐसा देशनाके प्रम ण स्वरूप एक ऐसा आधुनिक विविध मानता है जैसे कोई सप निकल जाने पर जकीर पीटता कला पूर्ण ढगका विशाल ऊँचा स्मारक स्तम्भ राजगृहीके हो। जैनधर्म जीव निकल जाने पर उपर्युक्त क्रिया व्यर्थ किसी मनोरम प्राकृतिक दर्य युक्त. भूमि पर निर्माण मानता है इस लिये वह कहता है कि जब मनुष्य मरणा- किया जावे जीपंपारकी और खास कर भारतवर्षकी सम हो तो अपने चित्तसे क्रोध, मान, माया, लोभ और एक दर्शनीय चीज हो और देश विदेशक पर्यटकों और गृह कुटुम्बसे मोहका त्याग करे अपने पापोंमे घृणा, प्राय- विद्वानों को बरवम अपनी ओर आकर्षित करे और उन्हें श्चित्त कर सबसे क्षमा याचना करे दान-पुण्य करे इस अपन अजीव सिद्वान्तोंके चेलेंजको स्वीकृत कराने के लिये तरह समाधिमरण पूर्वक स्वयंक पवित्र परिणामोंस शरीर ऐपा वाध्य करे कि वे अपनी प्रारमाकी बेचैनीस एक बार त्याग करे तो उसे स्वयं सद्गति प्राप्त होगी। जैनधर्मके शांत सोवर में दवकी अवश्य लगा. FREEM ASL
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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