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________________ ११८ भनेकान्त [वर्ष सदा तत्पर रहना चाहिए। उसकी संपूर्ण शक्ति नि:स्वार्थ का अस्तित्व तुम्हारे लिए-अर्थात् तुम संसारको अपने तथा निर्मलभावसे ऐसी प्रत्येक बाधाको दूर करने और लिए न बनायो किन्तु तुम संसारके लिए बनो। श्राततायीका दमन करनेके लिए लगनी चाहिए। २५ अपने आपको वशमें रखनेसे ही पूर्ण मनुष्यत्व १६ जो समर्थ होकर भी दूसरोपर होनेवाले अत्याचारों प्राप्त हो सकता है। को देखता रहता है-उन्हें रोकता नहीं वह कापुरुष है। २६ जिसकी आत्माका विकास होगया है वह उच्च है १७ श्रात्म-स्वातंत्र्य प्राप्त करनेका अधिकार प्रत्येक और जिसकी श्रात्माका विकास न होकर पतन होरहा है वह प्राणीको है। इस हेतु अपनी स्वतंत्राको सुरक्षित रख प्रत्येक नीच है। दशामें वीर बत्ती बनकर रही । परतंत्र रहना श्रात्महनन (२७) कभी भी जातिमद न करो । ब्राह्मण, क्षत्रिय, करना है। वैश्य, शूद्र और चाण्डालादि जातिकी केवल आचारमेदसे १५ श्रेष्ठताका आधार जन्म नहीं बल्कि गुण होता है ही कल्पना की गयी है। इसलिए वर्णगत नीचता-उच्चता और गणोंमें भी जीवनकी महत्ताका गुण । अत: हृदयसे का भाव हृदयसे निकालकर गुणोंकी ओर ध्यान दो। शद्र भेद भावनाको तथा अहंभावको शाघ्र नष्ट करके विश्व- कुलोत्पन्न व्यक्ति यदि श्राहार, विचार, शरीर और वस्त्रादि बन्धुत्वकी स्थापना करो। से शुद्ध एवं व्रतादिसे युक्त है तो वह देव-पूज्य होता है। रह जिनकी श्रात्मा दृढ एवं उद्देश्य ऊँचा है और २८ सत्यशील, न्यायी और पराक्रमी बनकर जीवनजिनमें निपाता उत्साह तथा पुरुषार्थकी मात्रा बढ़ी हुई है संग्राममें वीरताके साथ लड़ो तथा अपने कर्तव्यको निभाते उन्हें सांसारिक अड़चने कर्तव्य-पथसे विचलित नहीं कर जाओ। विरोधोंकी चिन्ता मत करो। सकती। अतएव श्रात्मबलका सन्मादन करो, हृदय तथा २८ मनुष्य जाति एक है। कर्मसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, चद्धिको परिष्कृत करो और अपना संकल्प दृढ़ एवं उच्च वश्य और शुद्र होते हैं । इसमें जन्मगत भेद-गाय, भैस. खकर धीर, वीर तथा संयमी वना। घोड़ादिकी भाँति नहीं है । इसलिए मानवकी मानवता २० दुःखमें शक्ति, क्षोभमें श्रात्मनिग्रह, विपत्तिमें धैर्य उसके सद्गुण और सच्चरित्रका श्रादर करो। और तम्पग मिताचार रखो। ३. अपना हृदय विकाररहित बनाकर ज्ञान प्राप्ति के २१ अपने भावीको शुद्ध करो। मनुष्य भावो द्वारा ही लिए सद्ग्रन्योका पठन-पाठन करो और समस्त प्राणियोके आचरणा करता और आचरण-दृष्टान्त मनुष्य जाति कल्याण करनेकी भावनाको हृदयमें जाग्रत करो। की पाठशाला । जो कुछ वह उससे सीख सकता है और ३१ दूसरोंके दृष्टिकोण पर गंभीरतापूर्वक विचार करके किसीसे नहीं। उसमें सत्यका अनुसंधान करो और अपने दृष्टिकोणसे २२ प्रायः प्रत्येक जीवात्मामें वह प्रबल शक्ति विद्य- विवेकपूर्ण विश्लेषणकर उसमें त्रुटि निकालनेका प्रयत्न करो। मान है जिसके द्वारा वह स्वावलम्बी बनकर और अपने ३२ हम सच्चे है, हमारा धर्म सच्चा है; पर दूसरोंको समस्त कर्मजंजालोको काटकर सर्वज्ञ-सर्वदशी परमात्मा बन सर्वथा मिथ्या मत समझो वल्कि स्याद्वादकी दृष्टिसे काम लो सकता है अथवा यो कहिये कि संसारका सर्वश्रेष्ठ पुरुष और सद्गुणोकी पूजा करो। हो सकता है। ३३ दूसरोंके दोष देखनेके पहले अपने दोषोंपर २३ श्रात्माका बल वास्तवमें बड़ा भारी बल है दृष्टि डालो। जिसका सहारा प्रत्येक मनुष्यको प्रत्येक दशामें मिलता ३४ अन्धे होकर लोकानुकरण मत करो; बल्कि यथार्थ रहता है। अत: अपने आपको पहचाननेके लिए अपनी ज्ञानको प्राप्त करो, जिससे चित्तवृत्ति शुभ तथा शुद्र भाव आत्माका अध्ययन करो। उस एक आत्माको जाननेसे ही नात्रों और प्रौढ़ विचारोंसे पूर्ण हो जाय । ही सब कुछ जाना जा सकता है। ३५ यदि तुम वास्तविकतापर-सच्चे धर्मपर विश्वास २४ तुम्हारा अस्तित्व संसारके लिए हो, न कि संसार लाना चाहते हो तो निर्भय वन जाओ। निर्भयता स्वतंत्रता
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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