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________________ १७४ अनेकान्त जादिया बयणवहा तावदिया चेव होंति णयवाद। प्राचार्य अमृतचन्द्रकके पुरुषार्थ सिद्ध्युपायके २३, १२, जावदिया णयवादा तावदिया चेव हॉति परममया ॥ ६३,६४,६५,६६,६७,६८EE. १००,१०१, १०३, १०४, और इम लिये इन तीन गाथाभों के आधार पर १०५, १०७, १०, १११, ११२, ११३, ११४, ११५, तो अमृतचन्द्रका ममय नेमचन्द्रके बादका नहीं कहा ११६, ११७, ११८, ११६, १२०, १२१, १२, १२३, जासकता। भव रही चौथी गाथाकी बात, उस गाया १२४, १२५ १२६, १२७, १२८, १२६, १३०, १३१, के सम्बन्धमें यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जामकता १३२ १३३. ५३४, १४३, १४५, १६२, १६३, १६४, कि वह गाथा प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके १६५, १६६, १६६, १७२, १७३, १७५, १७६, १७७. द्वागही निर्मित है। हो सकता है कि उक्त तीनों १७६, १७६ ११८, १८६, १६०, १६४, नम्बरके पद्य गाथाओं की तरह यह भी उमसे पूर्वका बनी हुई हो; पाये जाते हैं। साथ ही, उसके २२५ वें पद्यका भावाक्योंकि गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है उसमें कितनी नुवाद भी पाया जाता है जो जैनी नीतिके रहस्यका ही गाथाएं दुसरे ग्रंथोंपरसे है। जिन गाथाओं निदर्शक है। यथा:का प्राची- ममुल्लेख मिल गया है उनके सम्बन्ध में एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण । तोहम निश्चयतः कह ही सकते हैं कि वे गोम्मटसार मन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिव गोपी ।।२२५ के कर्ताको नहीं हैं। शेष गायाओं के सम्बन्धम अभी -पुरुषार्थसिद्धय पाय निश्चित रूपसे कुछ कहना कठिन है। अतः यह बहुत यस्या नैवोपमानं किमपि हि मकलद्योतकेषु प्रतक्यसंभव है कि उक्त गाया भी प्राचीन हो। वह गाथा मन्त्ये नैकेन नित्यं श्लथयति सकलं वस्तुतत्त्वं विवक्ष्यं । इस प्रकार है: अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिर्माहतां संविकर्षत्यजस्र', परसमयाणं वयण मिच्छखल होइ मवहा वयणा। गोपी मंथानवद्या जगतिविजयतांसा सखीमुक्तिलक्ष्म्याः जइग्णाणं पुण वयणं मम्मं ख कहं चि वयणादो॥ -धर्मरत्नाकर २०,६६ ऐमी स्थिति में यह कहना ठीक नहीं होगा कि ऊपरके इस कथनसे यह स्पष्ट है कि प्राचार्य प्राचार्य अमृतचन्द्रने उक्त गाथा गोम्मटमारसे उद्धत अमृतचन्द्र के समयकी उत्तगवधि सं० १०५५ के बाद की है। क्योंकि इससे पूर्वकी गथा सम्मतितककी की नहीं हो सकती। और पूर्वावधि आचार्य अकलंकहै। और इसलिये अमृतचन्द्रका समय नेमिचन्द्रा- देवके बाद किसी समय हो सकती है; क्योंकि प्राचार्य चार्य के वादका नहीं ठहराया जा सकता। अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार में, प्रत्यक्ष-परोक्षादिके कितने ___ डा० ए० एन० उपाध्येकी उक्त प्रस्तावनाके ही लक्षण उनके तत्त्वार्थ राजवातिकके वार्तिकों परसे आधारसे, जिसमें प्रवचनसारकी तात्पर्यवृत्तिके कर्ता बनाए गये हैं। जैसा कि उनके निम्न उद्धरणोंसे प्राचार्य जयसेनका ममय ईसा की १२ वीं सदीका स्पष्ट है:उत्तगधे और विक्रमकी १३ नीं सदीका पूर्वाध बत- इंद्रियानिद्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षं। तत्त्वारा०१-१२ लाया है. पं० नाथूरामजी प्रेमीने आचार्य अमृतचन्द्र इंद्रियानिन्द्रियापेक्षमुक्तमव्यभिचारि च । के समयका अनुमान १२ वीं सदीका कर लिया है। साकार-ग्रहणं यत्स्यात् सत्प्रत्यक्ष प्रवक्ष्यते ॥ जो ठीक नहीं है। क्यों कि प्राचार्य जयसेनके धर्म तत्वार्थसार १-१७ रत्नाकर में, जिमका रचनाकाल सं० १०५५ है, उपासानुपात्त प्राधान्यादवगमः परोक्ष । १देखो, जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४५८ -तत्त्वा००१-१२ २ वाणेन्द्रिय-व्योम-सोम-मिते संवत्सरे शुभे । समुपात्तानुपात्तस्य प्राधान्येन परस्य यत । ग्रंथोऽयं मिद्धता यात सकलीकरहाटके ॥ पदार्थानां परिज्ञानं तत्परोक्षमुदाहृतम् ।। धर्मरत्नाकर ऐ०५० स० प्रति। -तत्वार्थसार १-१६
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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