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________________ समृतचन्द्र सूरिका समय (ले०-६० परमानन्द जैन, शास्त्री) प्राचार्य अमृतचन्द्र अग्ने समयके एक अच्छे कोल्हापुरने प्रवचनसारके न्यू एडीशनकी अग्नी महआध्यात्मिक विद्वान होगए हैं। वे आचार्य कुन्दकुन्द त्वपूर्ण प्रस्तावनामें आचार्य अमृतचन्द्रका समय ईसा के ममयसारादि प्राभृतत्रयके मार्मिक टोकाकार और की लगभग दशवी शताब्दीका अन्त बताया है। माथ अध्यात्मिक ग्रंथों के तलसर्शी व्याख्याता विद्वान ही, यह भी लिखा है कि प्राचार्य अमृतचन्द्रने नमिथे । उनका नाटक समयसार, जो समयप्राभृतकी चन्द्र के गोम्मटमारसे कुछ गाथाएं उद्धृत की जान तत्त्वदीपिका टीकाके अन्तर्गन है, कुन्दकुन्दाचार्य के पड़ता हैं । नेमिचन्द्रका समय ईसाकी दशवीं शताब्दी समयसार पर कलशरूप है। उमकी कवित। बहत ही है। इससे अमृतचन्द्रका समय नेमिचन्द्रक मम गम्भीर, साम तथा आध्यात्मिकताका अपूर्व भंडार कालीन अथवा उसके कुछ बादका ही है। प न्तु उन है और मुमुक्षुओं के लिये बड़े कामकी चीज है। उन गाथाओं में से दो गाथाएं, जिन्हें उपाध्यायजीने अमृतकी प्रवचनमारादि ग्रंथों की तानों टीकाओंसे दाशिनिक चन्द्रकी टोकान्तर्गत स्वरचित अथवा उक्त टीकान्तर्गत पद्धतिका अच्छा आभास मिलता है। समयसारका वाक्योंकीसूची में दिया है और उन्हें जीवकाण्ड में ६१२ स्याद्वादाधिकार तो इसका पुष्ट प्रमाण हे हो। इन्हें और ६५४ नम्बरपर बतलाया है वे वास्तव में जवाण्ड विक्रमको १३ वीं शताब्दीके विद्वान पंडित आशाधर की नहीं है। पटवण्डागम के मूल सूत्र हैं। और भी जीने अनगारधर्मामृतकी स्वोपज्ञ टीका ( पृ० ५८८ ) कितनी ही गाथाएँ वहां मूलसूत्र के रूपमें पाई जाती है-- "एतच विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रसुरि-विरचितममय- णिद्धाणद्धाण बझति रुकाव रुक्वा य पोग्गला। मार-टीकायां दृष्टव्यम" इम वाक्यमें ठक्कुर या णिद्धलुकावा य बझतिरूवारूवी य पोग्गला ||३४|| ठाकुर विशेषण के साथ उल्लेखित किया है, जिसस णिद्धस्म णिद्धेण दुगहिरण पाप क्षत्रिय जाति जान पड़ते हैं। सारत्रयकी उक्त लुस्वस्म लुक्खेण दुराहिएण। तीनों टीकाओंके अतिरिक्त आपका तत्त्वार्थसार ग्रंथ णिद्धस्स लुक्खेण हवेज बंधो उमास्वातिके सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्रका विशद एवं जहएणवज्जे विममे समे वा ॥ पल्लवित अनुवाद है। और पुरुषार्थसिद्धयु गाय अपनी इनमेंकी अन्तिम गाथा प्राचार्य पूज्यपादने अपनी शैलीका एक उत्तम श्रावकाचार है । इसके अनेक पद्य तत्त्वार्थवृत्तिके ५ वें अध्यायके २६ वें सूत्रकी टीका प्राचीन प्राकृत पद्योंके अनुवादरूपमें पाये जाते हैं। करते हुए नद्धत की है। अतः ये गाथएं नेमिचन्द्रको इन ग्रन्थोंमेंस किसी में भी रचनाकाल दिया हुआ नहीं खदको कृति नहीं है। शेष दमरी दो गाथाओं में में निम्न है. अतः ऐसे ग्रन्थकारके समय-सम्बन्ध में जिज्ञासा गाथा सिद्धसेनके सम्मतितके तृतीय प्रकरणकी ४७ उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है । कुछ विद्वानोंने अमृत- वे नम्बरकी हैं। अतः वह भी नमिचन्द्रकी स्वरचित चन्द्राचार्य के समय सम्बन्धमें जो विचार प्रस्तुत किये नहीं कही जा सकती:हैं और उनसे उनके समय पर जो प्रकाश पड़ता है उस पर यहाँ कुछ नवीन प्रमाणों के आधारपर विचार १ Introduction of Pravacanasara p.101 किया जाता है। २ यह गाया अकलंकदेवके तत्वार्थराजवातिकमें भी डा. ए. एन. उपाध्ये एम० ए० डी लिट उद्धृत है ५-३६ ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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