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________________ १७२ अनेकान्त [वर्ष ८ विरोधी बना लेता, और इस अान्तरिक अशान्ति के कारण भी जैनधमके भक्त थे। इन्हीं वीर योद्धाभोंके कारण विजयविजयनगर राज्य वैसी उन्नतिको प्राप्त न हो सकता जैसा नगर साम्राज्य लगभग दो सौ वर्ष पर्यन्त अपने शत्र कि वह हा । बुक्कारायकी नीतिका अनुमरगा उसके वंशजों मुसल्मान राज्योका सफलता पूर्वक मुकाबला करता रहा। ने पूरी तरह किया, श्राधीनस्थ राजाश्रो, मामन्ती सर्दार्गे जेन व्यापारियों के कारण ही वह अत्यन्त समृद्ध हो सका राजकर्मचारियों और प्रजापर भी उसका पूरा प्रभाव पड़ा। और जैन विद्वानों तथा कलाकारोंने साम्राज्यको अपनी १४वीमे १६वाशताब्दी तकके अनेक शिलालेखों में जैन अजैन अनुपम साहित्यिक एवं कलात्मक कृतियों से सुसजित कर दोनों हीके द्वारा अईन्त जिनेन्द्र, शिव और विष्णु की एक दिया। प्रत्येक जैनी थाहार, औषध, विद्या और अभयरुप साथ ही नमस्कार किया गया है. जैन और हिन्दु दोनों ही चार प्रकारका दान करना अपना दैनिक कर्त्तव्य समझता धर्मों को एक साथ प्रशंसा की । स्वयं गमवंशके अनेक था। इस प्रकार, समस्त जैन समाजने विजयनगर-नरेशों स्त्री पुरुष जैन धर्म का पालन करते थे। इस वंशके अनेक को धार्मिक उदारताके :त्युत्तर में तन-मन-धनसे साम्राज्य नरेशां ने जैनधर्मानुयायो न होते हुए जैन मन्दिरों और की सर्वतोमुखी उन्नत में पूर्ण सहयोग दिया। धर्मस्थलों को दान दिये, भव्य जैन मन्दिर स्वयं निर्माण यह सब परिणाम महाराज हरिहरराय तथा बुक्काराय कराये और जैन गुरुओका सम्मान किया। राजवशंकी भांति द्वारा निश्चित की हुई सहि राना और उदारतापूर्ण धार्मिक प्रजामें भी अनेक कुटुम्बोंमें जेन में शैव और वैष्णव श्रादि नीति का ही था, जिसका कि श्रादर्श उदाहरण सन्१३६८ विविध धोके अनुयायी स्त्री पुरुष एक साथ प्रेम और ई० का महाराज बुक्कराय द्वारा प्रदत्त अन्त:साम्प्रदायिक श्रानन्दके साथ रहते थे । सेनापति वेचण, इरुगप्य, गोप चमू- निर्णय है और जो कि मध्यकालीन भारतीय इतिहासकी पति श्रादि कितने ही प्रचंड जैन योद्धा साम्राज्य की सेनाके एक अति महत्वपूर्ण घटना है । प्रधान सनानायक रहे, अनेक उपराना सामन्त और सार लखनऊ,-५-१८४६ * महाशक्ति ! सुलझ सुलझ जाय जाय शतशत शतशतशताब्दियोंकी गत संचित उलझन । जीवन तप कर बन जाये, सोने से, निर्मल कुन्दन ! मेरी पद रज से वश्चित हों, संमृति के आकर्षग्य । मेरे गेम - रोम में हो, नव । प्रलय - क्रान्तिका नर्तन ! वरवस मुझे प्राण दे जाये, महामृत्यु - प्रालिगन । करें न विचलित मुझे रंचभर, यम अथवा पद · वन्दन, एक वार अब फिर वह मोई. महाशक्ति जग जाए । बीहड - मरु में स्वतंत्रता - तरु जीवन भर नहगए। चयिता 'शशि'-रामपुर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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