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________________ ११२ अनेकान्त [वर्ष ८ - अवश्य प्राता है, परन्तु इसमें हमारी प्रायः कुछ भी हानि तौरसे दृष्टि रखने की जरूरत है। बहुतमे बालक अपनी नहीं हो सकती यदि हम अन्य तीन कारणों को अपने पास अज्ञानता बचपनका अन्यन्त निन्दनीय स्वाटी प्रवृत्तियों फटकने देव और विधिपूर्वक अच्छे पौगिक पदार्थोंका (Self destroying habits) में फंसकर हमेशाके बराबर सेवन करते रहें। ऐसा करनेसे हमारी जन्मसे प्राप्त लिये अपना सर्वनाश कर घालते हैं और फिर सारी इम्र हुई निर्बलता सब नष्ट हो जावेगी और हम अागामीके हाथ मन मल कर पछताते हैं, इस लिये माता-पिताकी लिये अपनी मन्तानको इस प्रथम-कारण-जनित व्यर्थकी इस विषय में बाल कोपर कडी दृष्टि रहनी चाहिये और उन पीडामे सुरक्षित रखने में समर्थ हो सकेंगे। को किसी न किसी प्रकारसे ऐसी शिक्षा देनेका प्रयत्न करना दुसरे कारण की बाबत ऊपर संकेत रूपमें बहुत कुछ चाहिये जिसम बालक इस प्रकारकी बोटी प्रवृत्तियों में पढ़ने कहा जा चुका है और यह विषय ऐसा है कि जिस पर न पावें । अधिकांश माता-पिता इस ओर बिल्कुल भी बहुन कुछ लिखा जा सकता है। परन्तु यहांपर संक्ष में पान नहीं देते और उनकी यह उपेक्षा विचारे हिताऽहित मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्वा. य-रक्षाके नियम ज्ञान शून्य बालकोंक लिये विषका काम देती है, जिसका हम लोगोंको दृढताके साथ पालन करने चाहिये और सर्व पारभार माता-पिताओंकी गर्दनपर होता है। अत: मातासाधारणको उन नियमों का ज्ञान कराने तथा उग नियमोंको पिताओं को इस विषय में बहुत सावधान रहना चाहिये और पालन करने की प्रेरणा करने के लिये वैद्यकशाम्रोंको मथनकर छोटी अवस्थामें तो बच्चों का विवाह भूल कर भी नहीं पाहार-विहार सम्बन्धी अत्यन्त मरल पुस्तके तयार करा करना चाहिये, बल्कि उनको कमसे कम २० वर्षकी श्रव. कर मर्वपाधारण में नि:स्वार्थभावसे उनका प्रचार करना स्था तक ब्रह्मचर्याश्रममें रखना चाहिये, और यही काब चाहये। यदि वाग्भटजीके निम्न श्लोकी छोटी बड़ी उनके निशाध्ययनका होना चाहिये। इसके पश्चात् यह उन टीका कराकर अथवा अन्य श्राहार-विहार तथा पूर्ण दिन- की इच्छा रही कि वे चाहे और विद्याध्ययनकर या विवाह चर्या मम्बन्धी पुस्तके तैय्यार कराकर स्कूली भरती कराई कराकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करें। जावे तो उनमे बहुत बड़ा उपकार हो सकता है। वह चौथा कारगा सब। प्रधान है, अच्छी खुराकका रजोक यहहै मिलना निर्बलताको उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करने वाला है। कालार्थ-कमां योगा हीन-मण्या-तिमातृका।। जब अच्छी खुराक अथवा उत्तम भोज्य पदार्थों की प्राप्ति ही सम्यग्यागश्न विज्ञ यो रोग्याऽऽग्यक-काराम ॥ नहीं होगी तो केवल स्वास्५५-रक्षाके नियमोंके जाननेसे ही इसका सामान्य अर्थ इतना ही है कि-'कालका हीन क्या लाभ हो सकता है ? वैद्यक-शान हमें किसी वस्तुकी योग, मिथ्यायोग तथा अतियोग, अर्थ (पदार्थ) का हीन उपयोगिता-अनुपातिाको बतलाता है परन्तु किसी उपयोग, मिथ्यायोग तथा अनियोग, और कर्म (क्रियादि) का योगी पदार्थकी प्राप्ति करा देना उसका काम नहीं। यह हीनयोग, मिपायोग तथा प्रतियोग, ये सब रोगोंक हमारा काम है कि हम उसका प्रबन्ध करें। इस लिये प्रधान कारण है, और इन काल, अर्थ तथा कर्मका सम्यक स्वास्थ्यरक्षाके नियम भी उस वक्त तक पूरी तौरस नहीं योग प्रारोग्यका प्रधान कारण है। परन्तु काल, अर्थ और पल सकते जब तक कि हमारे लिये अच्छी खुराक मिलने कर्मका वह हीन ग मिथ्यायोग प्रतियोग और सम्यक- का प्रबन्ध न होवे । वाहवमें यदि विचार किया जाय तो योग क्या उसे टीकात्रों द्वारा सप्रमाण स्पष्ट करके बत- मनुष्यके शरीरका मरा खेल उसके भोजनपर निर्भर है। लाने की जरूरत है. जिससे तद्विषयक ज्ञान विकासको प्राप्त अच्छे और श्रेष्ठ भोजन मनुष्यका शरीर सुन्दर, नीरोगी होवे और जनताको संयोग-विरुद्धादिके रूप में अपनी मिथ्या. एवं बलाढ्य बनता है और मनुष्य के हृदयमें उत्तम विचारों चर्याका भान हो सके। की सृष्टि होती है। विपरीत इसके, बुरे अथवा निकृष्ट तीसरा कारण यद्यपि दूसरे कारण की ही एक शाखा भोजनसे मनुष्यक शरीर रोगाकान्त एवं ति तय्यार है और उसीकी व्याख्यामें प्राता है, फिर भी उमपर वास होता है और उसमें प्राय: छोटे तथा हीन विचार ही उत्पन्न
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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