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________________ अनेकान्त [ वर्ष ८ सोचने लगे वह-'अचरजकी बात है कि स्वर्ग- किया, तो साधना सफल हुई ! सुन्दराकार देवी वासिनी बदसूरत दिखलाई दे रही है-मुझे ? क्या सामने आई ! देवी कानी हो सकती है ?-कदापि नहीं ! फिर · ? विद्याने दासीत्व स्वीकार किया। तब क्या मन्त्रमें कुछ हीनाधिकता है, अशुद्धि है, विकृति है ?' ' प्राचार्य महाराजकी प्रसन्नता सीमा लाँघ गई___ समाधानके लिए उन्होंने मन्त्रकी जाँच करना जब उन्होंने यह जाना, कि दोनोंने विद्या प्राप्त करली । तय किया ! व्याकरणकी कसौटीपर कसा तो सचमुच वे बोले-'अब मुझे विश्वास होगया, कि तुम एक अक्षर कम था उसमें ! अङ्ग-भङ्ग था वह ! दोनों सचमुच शास्त्रके ग्रहण, धारण और प्रचार मन्त्र सुधार कर फिर साधन करने लगे। इस द्वारा वीर-शासन-सेवाकी योग्यता रखते हो। तुम बार जो देवी नज़र पड़ी, वह पूर्ण सुन्दरी थी! मेरी परीक्षा उत्तीर्ण हुए हो। और इससे मुझे जो और तभी उन्हें विद्या सिद्ध होगई ! खुशी मिल रही है, उसे प्रकट नहीं किया जा सकता।' ___ दोनोंकी गर्दने सङ्कोचसे झुक गई। दोनों मौन, भूतबलिके साथ भी करीब-करीब वैसी ही घटना निरुत्तर !! घटी, जैसी पुष्पदन्तक साथ ! फर्क सिर्फ इतना ही वे कहते गए- 'मैंने मोचा, असंख्य प्राणियों के रहा कि उन्हें कानी देवीके दर्शन हुए तो इन्हें उसके कल्याणका भार मैं जिनके ऊपर रखना चाहता है, स्थानपर एक दूसरे प्रकारकी बदशक्ल देवीके ! यो, युग-युगों तक जिनका मत्प्रयत्न संसारको मुख और वह देवी रङ्ग-रूपमें बुरी नहीं थी । तमाम शरीर शान्तिका माग बतानेके लिए अग्रमामी रहेगा, उनकी सुन्दर था-उसका ! लेकिन दाँत इतने बड़े थे कि परख होना अत्यन्त आवश्यक है, निहायत ज़रूरी है। अोठोंसे बाहर निकले हुए थे। सारी सुन्दरतापर सच है, कि मैंने कई दिनकं मम्पर्कम तुम्हें बहुत कुछ जिन्होंने पानी फेर दिया था। और वह देवी सचमुच जान लिया था कि तुम क्या हो। लेकिन मागमें भयानक राक्षसी-सी कुरूपा होगई थी। दाँतोंका निर्माणकी कितनी क्षमता रखते हो, गतिशील बुद्धिसौन्दयके साथ कितना गहरा सम्बन्ध है, यह उसकी में कितनी उग्रता है-सूक्ष्मता है, यह रहस्यमय ही शक्लसे साफ प्रकट होरहा था। बना रहा। इसी सन्देहको मिटानेके लिए तुम दोनों भूतबलि चकराए ! को एक मन्त्र दिया, जिसके अक्षरोंमें कमी-वेशी थी। 'देवी और कुरूपा ? यह कैसे .... ?' बुद्धिने और तुमने उसका संशोधन कर माबित कर दिया, प्रश्न उठाया। कि हमारे पास केवल रटन्त-विद्या ही नहीं है, ताकिक विवेकन कहा-'नहीं यह नहीं होता। देवियाँ बुद्धि एवं जाँचकी कसौटी भी है। लकीरकं फकीर कुरूप नहीं होती, हाँ बन ज़रूर र * हैं, वरन् लकीर खींचकर फकीरोंको उसपर विक्रियासे ! फिर ?' चलानकी ताकत रखते है। ___ 'मालूम होता है-मन्त्रमें कुछ गलती है । नहीं दोनोंने मुँह खोला-किस योग्य हैं हम तो फिर दूसरी वजह क्या हो सकती है, इस अवसर महाराज ? प्रशंसाकं योग्य हैं ये आपके चरण, पर ? शायद कोई नहीं !' जिनकी शरणमें हम पाए हैं।' भूतबलिकी तीक्ष्ण-बुद्धिने विकृतिकी जड़को पकड़ लिया। वन्दनीय प्राचार्य धरसेनने कितन:-क्या दिया मन्त्रकी शुद्धता परखी, तो उसे अशुद्ध रूपमें दोनोंको, यह इससे स्पष्ट होजाता है कि सिद्धान्त पाया। एक अक्षर अधिक! शास्त्रके उद्धारका-आगम सूत्रोंकी रचनाका-प्रधान सुधारा! संशोधन-पूर्वक जब उसका पुनः साधन श्रेय पुष्पदन्त और भूतबलि दोनोंको प्राप्त हुआ है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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