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________________ किरण ४-५] जैनधर्ममें वर्णव्यवस्था कर्मसे ही है, जन्मसे नहीं २११ न्यवहार जैनियोंके कैसे बनेंगे ? है अथवा शरीरके अथवा दोनोंके या संस्कारके समाधान-नहीं, क्योंकि क्रियाविशेषसे सहित अथवा वेदाध्ययनके ? जीवके तो ब्राह्मणत्व बन नहीं और यज्ञोपवीतादि चिन्ह बाले व्यक्तियोंमें यह सकता है, क्योंकि क्षत्रिय वैश्य शूद्रोंके भी ब्राह्मणत्वका वर्णाश्रमकी व्यवस्था और तपोदानादि धर्म बन ज,येंगे। प्रसंग आयेगा । कारण, जीवत्व, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों में अर्थात् शामाध्ययन, व्रताचरण प्रधान ब्राह्मण, भी होता है । पंचभूतादिस्वरूप शरीर के भी ब्राह्मणत्व शासन क और असहायों की रक्षा करनेवाले क्षत्रिय, संभव नहीं है। जिस तरह पंचभूतात्मक घटादिकमें व्यापार, खेती, मुनीमी श्रादि कर्म करने वाले वैश्य, ब्राह्मणत्व नहीं है उसी तरह पंचभूतात्मक शरीरमें और सेवा शिल्पका कार्य करने वाले शूद्र कहलायेंगे। भी ब्राह्मणत्व नहीं है। शरीर और जीव दोनों के अतः कोई भी नित्यजाति वर्ण नहीं है । क्रियाविशेषसे ब्राह्मणत्व माननेपर दोनों में कहे हुये दोषोंका प्रसंग जाति वर्ण बनते हैं और क्रिया छोडनेपर जानि वर्ण आवेगा। संकारके भी ब्राह्मणत्व संभव नहीं. क्योंकि नष्ट होजाते हैं और क्रिया बदल देने पर जातिवणं संस्कार शूद्रबालकमें भी हो सकनेसे उसके भी ब्राह्मणबदल जाते हैं । अगर क्रियासे ही वणव्यवस्था न त्वका प्रसंग आयेगा । वेदाध्ययनसे भी ब्राह्मणत्व होनी तो परशुरामद्वारा क्षत्रिय रहित पृथ्वी कर देने पर नही बनता है क्योंकि शूद्र भी वेदाध्ययन कर सकते वर्तमान में क्षत्रिय कहाँसे पैदा होते ? जिस तरह हैं। अतः उसके भी ब्राह्मणत्वका प्रसंग आयेगा । और परशुरामने क्षियरहित पृथ्वी की उसी तरह किसीके यह ज्ञात ही है कि शूद्र भी देशान्तर में जाकर वेद द्वारा ब्राह्मणरहित पृथ्वीकी भी संभावना हो सकती पढ़ते हैं और दूसरोंको भी पढ़ाते हैं। पर इतनेस है। फिर वर्तमानमें ब्राह्मण कहाँसे आगये ? अगर उन्हें ब्राह्मण नहीं माना जाता है। इन प्रमाणोंसे कहो कि ब्राह्मण क्षत्रिय रहित पृथ्वी होने पर भी बाकी मिद्ध है कि नित्य जन्मना वर्णव्यवस्था नहीं है बचे शूद्र, वैश्य ही ब्राह्मणादिकी क्रिया कर नेसे ब्राह्मण किन्तु सदृश क्रियाविशेष परिणामादि (आचार तत्रिय बन गये तो फिर क्रियाक आधीन हो वर्ण विचार आजीविकादि भेद) के प्राधीन ही वर्णव्यवस्था व्यवस्था हुई, जन्मसे नहीं। यही जैनधर्म मानता है। है। अर्थात् जो उच्च आचार विचार रखे वह उच्च वणअगर जन्मसे नित्य ब्राह्मण जाति मानी जाय तो का है और जो नीच आचार-विचार रखे वह नीच धेश्याके घरम रहनेवाली ब्राह्मणीको निन्दा क्यों की वर्णका है। जाती है ? और उसमें ब्राह्मणत्वका प्रभाव क्यों माना इसी बानका समर्थन पं० आशाधरजीने अनगार जाता है ? क्योंकि उस ब्राह्मणीको वेश्या होजानेपर धर्मामृतमें किया है यथा-। भी नित्य जन्मना ब्राह्मण जाति पवित्रताकी हेतु “अनादाविह संसारे, दुर्वारे मकरध्वजे । उसमें मौजूद रहेगी ही । अन्यथा गोजातिसे भी कुले च कामिनीमूले का जाति-परिकल्पना।" ब्राह्मणजात निकृष्ट कही जायेगी। क्योंकि चांडालादि- अर्थात-अनादिकालीन संसार में कामदेव सदासे के घर में वर्षोंसे रही हुई भी गायोंको बड़े लोग दुर्निवार चला आरहा है । और कुलका मूल कामिनी (उच्च वर्णवाले) खरीद लेते हैं और उसका दूध है तो नमके आधारपर जाति और वर्णकी कल्पना सेवन करते हैं किन्तु भ्रष्ट हुई ब्राह्मणीको नीं अपनाते। कैसे ठहर सकती है। तात्पर्य यह कि कामदेवकी अगर कहा जाय कि वेश्याके घरमें रहने वाली ब्राह्मणी चपेट में न जाने कौन स्त्री कब आजाये। अतः स्त्रियोंकी क्रिया नष्ट होजानेसे उसकी निन्दा हो जाती है की शुद्धिके ऊपर जातिकी कल्पना नहीं ठहरती। तो क्रियाविशेषसे ही वर्णव्यवस्था सिद्ध हुई, जन्मने पूज्य तार्किक शिरोमरिण प्रभाषन्द्राचार्यने कितनी नित्य नहीं। सुन्दरतासे नाना विकल्पोंको उठाकर जन्मना व नित्य दूसरी बात यह है कि ब्राह्मणत्व' जीवके हाता वर्ण व्यवस्थाका खंडन किया है। इसे पाठक स्वयं ही
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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