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________________ २१२ भनेकान्त [ वर्ष - ऊपर देख चुके हैं। इन तमाम प्रमाणोंसे सिद्ध है कि सोऽपि गजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं कुलं यदा।। वर्णव्यवस्था प्राचार-क्रिया और आजीविकाके भेदको तदाऽस्योपनयास्त्वं पुत्रपौत्रादिसंततौ । लेकर ही कायम हुई है-जन्मसे नित्य नहीं हैं। न निषिद्धं हि दीक्षाई कुले चेदस्य पूर्वजाः ।। उपसंहार (मादि पर्व० पृ० ४०) अगर निश्चित करें (क्रिया) और भाजीविकाके अर्थात्-किसी कारणवश किसी कुलमें कोई साधनको छोड़ देते हैं या वदल देते हैं तो जाति-वर्ण दोष लग गया हो तो वह राजादिकी सम्मतिसे जव नष्ट भी होजाता है और बदल भी जाता है । अतः अपने कुलको प्रायश्चित्तसे शुद्ध कर लेता है तब उसे जन्मसे किसीको ऊँचा समझना और किसीको नीचा फिर यज्ञोपवीतादि लेनेका अधिकार होजाता है। समझना उचित नहीं है । प्रचलित अच्छे यदि इसके पूर्वज दीक्षायोग्य कुलमें हुये हों तो वर्ण-जातिमें पैदा होकरभी अगर सदाचारी नहीं उसके पत्र पौत्रादिको यज्ञोपवीतादि लेनेका कहीं है तो वह नीच-वर्णी ही है, और प्रचलित नीच निषेध नहीं है। इस आगमपर नजर डालकर दस्सावर्णमें पैदा होकर सदाचारी है तो वह उच्चवर्ण लोगोंको पुनः शुद्ध कर अपने में शीघ्र मिला लेना वाला ही है। यही भ० महावीरकी देशना है। आज चाहिये। जिस तरह नीच चारित्रमे मानव पतित जो इसका प्रचार भी वर्तमान युगके महात्मा गांधी और शूद्र होसकता है उसी तरह पंचपापोंके त्यागरूप कर रहे हैं वह भी वीरशासनका सञ्चा प्रचार है। उच्च चारित्रमे शूद्र, पतित और मलेच्छ भी इससे यह नतीजा निकलता है कि प्रत्येक मानव पुच्चवर्णी (बामणादि) जैनी हो सकते हैं। जो समीचीन आचार-विचार पालन कर जैनधर्म त्रिय कारणवश भृष्ट होगई हैं वे भी प्रायश्चित्त लेकर धारण करनेका अधिकारी हो सकता है और हम यथायोग्य पुनः शुद्ध होसकती हैं । ऐसी हजारों ऊँचे कुल वर्णमें पैदा हुये, इस बातका हमें घमंड नजीरें जैनशास्त्रों में भरी पड़ी हैं। मधुराजा, अंजन, छोड़ देना चाहिये और उच्च चारित्रका-पंच पापोंके बसंतमेनावेश्या, चारुदत्त सेठ तथा रुद्रोंको पैदा स्यागरूप संयमका पालन कर सच्चे जैन बाह्मणादि करनेवाली अजिंकायें भी तो प्रायश्चित्त लेकर पुनः बनना चाहिये । जब वर्ण और जाति क्रियाके आधीन शुद्ध बनकर स्वर्गकी अधिकारिणी हुई थीं । अत: ही है और उसका परिवर्तनादि भी हो सकता है बन्धुओं चेतो, नवीन लोगोंको जैन बनाओ और तब प्रत्येक वर्ण (जाति)के साथ विजातीयविवाह तथा हर वर्ण के मनुष्यस्त्रीको जैनधर्ममें दीक्षित करो और अपनी उपजातियों में अन्तर्जातीय विवाह किये जा- उनके साथ भाईपनेका व्यवहार करो जो धार्मिक सकते हैं और शूद्रसे शूद्रादिकों को जैन बनाया जासकता सामाजिक अधिकार तुम्हें प्राप्त है वे अधिकार नी है और वह उच्च चारित्र पालन कर स्वर्गादिकका उन नवदीक्षित लोगोंको दो जिससे जैनधर्मकी असली अधिकारी भी होसकता है। इस बात के प्रथमानुयोगके प्रभावना हो और जैनसंख्याकी वृद्धि हो । रानी शास्त्रोंमें हजारों प्रमाण मिलते हैं। दस्मा लोगोंको चेलनाने भी तो गजा श्रेणिक बौद्धको जैन बनाया था जिन्हें आप अपनेसे छोटा मानते हैं-पुनः शुद्ध कर तथा अपके तीर्थकर और आचार्योनेतो सारे विश्वको शुद्ध वर्णवाला बनाया जासकता है, क्योंकि आचारके ही जैन बनाया था। यही कारण है कि आज भी आधीन ही वर्णव्यवस्था है। अतः उच्चचारित्र पालन करणाटक प्रांतमें सभी वर्णके लोग जैनधर्म धारण कर और प्रायश्चित्त लेकर दस्सा लोग पुनः शुद्ध हो किये हुये हैं। जब वर्ण और जाति ही क्रियाके सकते है। इसी बातका समर्थन जिनसनाचार्यने ठहरते है तो उनके उपभेदस्वरूप जो उपनातियाँ अपने आदिपुराणमें किया है यथा- वर्तमानमें प्रचलित हैं जो देशभेद, आजीविकाभेद, कुनश्चित्कारणादास्य, कुलं संप्राप्तदूषणम । और राजादिके नामपर बनी हैं वे सब तो अपने
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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