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________________ किरण ४-५] साहित्य-परिचय और समालोचन (२१३ आप ही कृत्रिम ठहरती हैं । अतः इन उपजानियों का वादका आधार और अहिंसावाद क्रियास वर्णघमड करना भी व्यर्थ है। भ० महावीर के माम्य- व्यतम्याको मानना ही है। साहित्य-परिचय और समालोचन १ पटखण्डागम (क्षद्रकबन्ध धवला टीका और पर उसमें समस्त जीवराशिका समावेश हो ही जाता उसके अनुवाद सहित)-सम्पादक प्रो० हीरालालजी है जिनमें अकायिक जीव भी मम्मिलित हैं--वे जैन एम. ए. डी. लिट् मारिस कालेज, नागपुर, ममम्त जीवशिसे भिन्न नहीं हैं। ऐमी हालत में उक्त महसम्पादक, पं० बालचन्द जी मिद्धान्तशस्त्री, अमरा- अर्थ जीको लगता हा प्रतीत नहीं होता, किन्तु वती । प्रकाशक, श्रीमन्त मठ शितावगय लक्ष्मीचन्द अकायिक जीव प्रथम वर्गमूल के अनन्त भागमात्र है' जन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती पृष्ठ सं० ऐमा हाना चाहिये सूत्रोंका अर्थ करते हुए कितन ही ६७२, मूल्य जिल्द १०), शास्त्रकार १२) रुग्या। सूत्रों क अर्थको भावार्थ द्वारा स्पष्ट करना चाहिये था, जिममे पढ़ने वालों के लिये और सरलता हो प्रस्तुत ग्रंथ षटवण्डागमका द्वितीय खण्ड हे, जाती. सम्पादकजीने प्राक्कथन और प्रस्तावनामें 'मंयन' जिसे खुद्दाबंध या क्षुद्रकबंध कहते हैं। इसमें संक्षिप्त पदकी चर्चा करते हए मुडवद्रीय ताडपत्रीय प्रतिक रूपमे कर्मबन्धका वर्णन स्वामित्व, काल. अन्तर, अनमारहवें सत्र में 'संजद'पद जोडनेकी प्रेरणा की है। भंगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, नानाजीवकाल, नानाजोवअन्तर. भागाभागानुगम, परिशियों में अवतरणगाथा सूची नामक परिशिष्ट और अल्पबहत्वानुगम इन ग्यारह अनुयाग द्वारा में निर्दिष्ट गाथाएँ पंचसंग्रह प्राकृत भीर मुलाचार मार्गगगास्थानों में किया गया है । साथ हा, महादंडक (आचारांग) में भी पाई जाती हैं। 'समने मदिग्गा' चलिकामें अल्पबहुत्वानुयोग द्वारा सुचित अर्थकी और 'णाणावग्णचदक्क' ये दो गाथाएँ प्राकृत पंचविशेषताका भी निरूपण किया गया है। अचार्य संग्रहम पाई जाती हैं आर शेष 'गिग कम्वत्त विदियभूतलिने इम खंडका विषय १५८८ सूत्रों में वर्णित मन' पढमक्खो अंतगओ, संखा नह पन्थागे, मंठाविकिया है। हिन्दी अनुवाद पूर्ववत् मूलानुगामी है; दुण रूवं, सग माणहि, विहत्त, पढम पडिपमारणं और परन्तु कुछ स्थलोंपर स्खलन तथा अर्थका मामंजस्य सम्बेपि पुत्रभंगा, ये सब गाथा १०३७. १०३८, ठीक नहीं बैठ मका है। उदाहरण के लिये प्रष्ठ ६ । ह । उदाहरणक लिये प्रष्ठ ६ १०४०, १०३६, १०३३ और १०३५ नंबगेपर पाई को चतुर्थ पंक्ति में 'गम्यते इति गतिः'। अर्थ ठीक जाती है। नहीं किया गया है तथा पृष्ठ ५३६ की निम्न पंक्तिको देखिये-"गण च अकाइया मधजीवाणं पढमवगमूल- ऐसे महान ग्रंथ के सम्पादन प्रकाशन में बड़ी मावमेत्ता अस्थि नस्म पढमवगमूलस्स अणंनभागमेत्तादो।" धानी रखते हुए भी कुछ भूलोंका हो जाना बहुत बड़ी अथ-"अकायिक जीव मर्वजीवों के प्रथम वर्गमूल बात नहीं है। आशा है आगे और भी सावधानी प्रमाण है, क्योंकि वह प्रथम वर्गमूल अकायिक जीवों रखने का प्रयत्न किया जावेगा। ग्रंथका प्रस्तुत भाग के अनन्नवें भाग प्रमाण है।"मलपंक्तिसे यह अर्थ फलिन प्रायः करके अपने पूर्व भागों के अनुरूप ही है। नहीं होता; क्या।।१. पन जीवराशिका प्रथम वर्गमूल छपाई सफाई भी सुन्दर और चित्ताकर्षक है । प्रत्येक प्रकायिक जीवों के अनन्नवें भाग प्रमाण नहीं हो जैन मन्दिर, लायब्रेरी और शास्त्रभंडार तथा संस्थाओं सकता. कारण कि प्रथम वर्गमूलका एकवार वर्ग करने और विद्वानोंको मंगाकर अध्ययन करना चाहिये।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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