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________________ २६६ अनेकान्त [वर्ष - - यदि माधारण भी होता है तो कितने ही पुरुषवेदियों- वीर्यकी प्रधानता व अप्रधानता किस प्रकार अवयव को शरीर रचना स्त्रीकी होगी ? युगलियोंको एक ही रचनामें कारणीभूत होती है, यह शास्त्रीय प्रमाणों योनिस्थलमें तो वीर्यकी हो या रजकी ही प्रधानता द्वारा समझाया जाय? मिलेगी। तब उनमें क्यों वेदवैषम्य उत्पन्न नहीं हो मेरी इन शंकाओंके उपस्थित किये जानेपर पाता? पंडितजीने न तो वह मेरा लेख प्रकाशित करना ४-स्त्री वेदोदयसे जीव के पुरुषसे मैथुनकी अभि- उचित समझा और न शंकाओं के समाधान करनेकी लाषा उत्पन्न होगी, स्त्री मैथुनकी कदापि नहीं। और आवश्यकता समझी। बल्कि मेरे लेखको छापनेका इसी अभिलाषाकी तृप्ति के लिये उसके अन्तरायके वायदा करते करते अन्ततः सन्देशके सम्पादकीय प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताके उदयसे स्त्री द्रव्यवेद ही लेखमें यह प्रकट कर दिया गया कि "अब हम यही उत्पन्न होना चाहिये ? किन्तु आपकी उक्त व्यवस्था- उचित समझते हैं कि इस चर्चाको सन्देशमें समाप्त नुमार उस जीवके उसकी अभिलाषामे विपरीत कर दिया जाय।" इस प्रकार उक्त सैद्धान्तिक गुत्थी अवयव उत्पन्न होगा जिसके द्वारा वह कदापि अपनी उलझीकी उलझ ही आँखोंके ओझल रख दी गई। तृप्ति नहीं कर सकेगा। तब फिर यह कार्य अन्तरायके शस्त्रीय विषयोंपर विद्वानोंकी ऐसी उपेक्षावृत्तिको प्रकृष्ट क्षयोपशम व साताके उदयसे उत्पन्न कहा जाना देकर बड़ी निराशा होती है । किन्तु जान पड़ता चाहिये या इसमे विपरीत? है अनेकान्तके सुविज्ञ सम्पादक इस विषयको अभी ५-कर्मसिद्धान्तकी व्यवस्थानुमार तो जीव भी निर्णयकी ओर गतिशील बनानेकी अभिलाषा योनिस्थलमें पहुँचकर आहार पर्याप्तिकालमें केवल रखते हैं। अतएव जिस तत्परतासे कुछ विद्वानाने आहारवर्गणाके पुद्गल स्कंध मात्र ग्रहण करता है 'सजद' पदकी चर्चाको उसके अन्तिम निर्णयपर जिनको ही खल-नस भाग रूप परिणमा कर वह पहुँचा दिया है. उसी प्रकार वे उक्त प्रश्नोंपर विचार अपने शरीरादि पयोप्ति के काल में अपने परिणामा- कर उससे फलित होने वाली व्यवस्थाओंको भी नुसार शरीर-अवयवोंकी रचना करता है । तब फिर निर्णयोन्मुख करेंगे, ऐसी आशा है । जैन वाङ्मयका प्रथमानुयोग (लेखक-वा० ज्योतिप्रासद जैन, विशारद एम० ए०, एल-एल० बी०) प्राचीनतम अनुश्रुति के आधारपर जैन वाछ-मयका देवने सर्व प्रथम जनताको धर्मोपदेश दिया-जैनधर्मका मूलाधार धर्म प्रवतेक जैन तीर्थङ्करोंका धर्मोपदेश या। सर्व-प्रथम प्रतिपादन किया, यह बात प्रागऐतिहासिक अनेक प्रागऐतिहासिक विशेषज्ञों के मतानुमार धर्म काल (Prehistoric times) के अन्त तथा और मभ्यताका सर्व प्रथम उदय भारतवर्ष में हुआ अशुद्ध ? ऐतिहासिक काल (Pro to historicti था। और इस बातके भी प्रबल प्रमाण उपलका mes) के प्रारम्भ की है। भगवान ऋषभदेवक कि प्रथम जैन तीर्थङ्कर आदिदेव भगवान ऋषभ उपरान्त, उसी अशुद्ध ऐतिहासिक कालमें भगवान उक्त धर्म, सभ्यता तथा संस्कृतिके मूल प्रवर्तक थे। नेमिनाथ पर्यन्त बीस जैन तीर्थकर और हुए और भारतीय अनुश्रुतिकी जैनधाराके अनुसार उन्हीं ऋषभ- उन सबने अपने अपने समय में भगवान ऋषभद्वारा
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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