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________________ किरण ४-५] जैन बाङ्मयका प्रथमानुयोग १६७ - प्रतिपादित जिनधर्मका प्रचार किया । अधिकांश 'प्रथम' पुरुष हैं, और उनके सम्यक्त्वप्राप्तिलक्षण आधुनिक भारतीय इतिहासज्ञ विद्वानों के मतानुसार पूर्वभवादिकका वर्णन करनेवाला होने के कारणसे यह सन् ई० पू० १५०० के लगभग प्रसिद्ध महाभारत अनुयोग 'प्रथमानुयोग' कहलाया । शेष शलाकापुरुष युद्धकी समाप्तिसे भारतवर्षका नियमित इतिहास तथा अन्य मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील महान मात्माएँ प्रारम्भ होजाता है । महाभारत-युद्धके समय बाईसवें भी प्रथमवर्गकी ही होनेसे इस अनुयोगमें उनका जैनतीर्थङ्कर अरिष्टनेमि जैनधर्मका प्रचार कर रहे थे। वर्णन होता है । मुमुक्षुओं को धर्मका रहस्य भली उनके उपरान्त ई० पू० ८७७-७७७ में २३ वें तीर्थकर प्रकार समझाने के लिये तीर्थकरों तथा अन्य भाषाभगवान पार्श्वनाथका तीर्थ पला । और अन्तमें चौबी- र्यादिकोंको दृष्टान्तादिके लिये परम भावश्यक एवं मवें जैन तीर्थकर वर्धमान महावीरने (ई० पू० ६००- उपयोगी इस अनुयोगका सबसे भागे और बार बार ६२७ उसी अहिंसामूलक, स्याद्वादमयी, कर्म-सिद्धान्तपर कथन करना होता है अतः यह 'प्रथमानुयोग' कहलाया। आधारित साम्यवादी जैन-धर्मका पुनरुद्धार किया। इस सबके अतिरिक्त, जैन तीर्थकर तथा जैनासन् ई० पू० ५५८ में पम्पशैलपुर ( राजगृह ) के चार्य भारी मनोविज्ञानवेत्ता होते थे। वे जानते थे विपुलाचलपर्वतसे उनका सर्वप्रथम उपदेश हुआ और कि अधिकांश मानव समाज अल्पबुद्धिका धारक होता उक्त शान्तिमयी अक्षय सुखप्रद उपदेशका प्रवाह है और इसी कारण कथाप्रिय भी । भाकर्षक ढंगसे भगवानके निर्वाणपयन्त लगभग ३० वर्ष तक निरंतर तर कही गई अथवा लिखी गई उपदेशप्रद तथा नीत्याप्रवाहित रहा। त्मक कथा-कहानीको मावालवृद्ध, बी, पुरुष, शिक्षित भगवानने जो कुछ उपदेश दिया था उसे उनके अशिक्षित अधिकांश व्यत्ति बड़े पावसे पढ़ते सुनते प्रधान शिष्यों इन्द्रभूति-गौतम आदि गणधरोंने हैं। साथ ही, अपने पूर्वजोंके चरित्र व उनकी स्मृति द्वादशाङ्गश्रुतके रूपमें रचनाबद्ध किया। द्वादशाङ्गश्रुतके को अपने भतीत इतिहासको स्थाई बनाये रखनेकी भेदप्रभेद तथा विस्तार बहुत अधिक हैं और उसका प्रवृत्ति भी मनुष्यों में स्वभावतया होती है । दूसरे अधिकांश आज उपलब्ध नहीं है। गूढ़ धार्मिक सिद्धान्तों एवं तत्वज्ञानको, शुष्क चारित्र इसी द्वादशाङ्गश्रुतके बारहवें भेद दृष्टिप्रबादाङ्गका अर नियमोंको जनगाधारण इतना शीघ्र और सुगतृतीयभेद प्रथमानुयोग था। मृलप्रथमानुयोग अर्ध- मतासे हृदयंगत नहीं करता जितना कि वह अपनेसे मागधी भाषामें था और इसका विस्तार केवल ५००० पूर्वमें हुए अनुश्र त महापुरुषों के जीवन वृत्तान्तों तथा पदप्रमाण था। अन्य अधिकारोंकी अपेक्षा प्रथमा- पाप-पुण्य फलमयी दृष्टान्तोंको। इन कथनोंका सजीव नुयोगका इतना कम विस्तार था कि इससे यह अनु- वर्णन उनके हत्तलको स्पर्श करता है, उन्हें प्रभावित मान होता है कि इस अनुयोगके अन्तर्गत विषयका कर देता है, भोर परिणामस्वरूप पापसे भय तथा बहुत संक्षिप्त वर्णन किया गया था। पुण्य कार्योंसे प्रीति करना सिखलाता है । इसी लिये इसमें भगवान महावीर पर्यन्तके बारह अतीत जैनाचार्योंने 'प्रथम' का अर्थ 'भव्युत्पन्न मिथ्याष्टि' जिनवंशों तथा राजवंशोंका इतिवृत्त था, साथ ही किया है । इन शब्दोंसे तात्पर्य उन अधिकांश देहधातीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण भादि त्रेसठ रियोंसे है जो न व्युत्पन्न मति ही हैं और न धर्म तथा महापुरुषों ( शलाकापुरुषों) के जीवनचरित्र तथा धार्मिक क्रियाओंके प्रति ही विशेष खिंचाव महसुस पूर्वभवोंका वर्णन था, इनके अतिरिक्त अन्य भी करते हैं, जिन्होंने धर्मका रहस्य न समझा है, न मोक्षमार्गमें प्रयत्नशील अनेक महान आत्मा स्त्री- अनुभव किया है और न तदनुकूल आचरण ही किया पुरुषोंके वृत्तान्त थे। है। इस प्रकार धर्ममार्गपर न आरूढ हुए अल्पबुद्धि तीर्थङ्कर नर्तक होनेसे पुरुषश्रेष्ठ अर्थात जनों के हितार्थ जो धार्मिक साहित्यका अंग जातीय
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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