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________________ किरण ८-९] रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाका एक कर्तृत्व प्रमाणसिद्ध है. ३४१ प्रो. सा. ने मेरी इस आपत्तिको 'आशङ्का'' अतएव यह कहा भी गया है कि 'नावश्य कारणानि कहकर उसमेंसे पहली पंक्तिको ही उद्धृत किया है कार्यवन्ति भवन्ति ।' यही बात वेदनीयोदयमें है कि और उसका कुछ उत्तर दिया है। पर मेरे उक्त वह मोहसंयुक्त होकर सुख दुख पैदा करता है बिना किया है और न उसका मोहके सुख-दुख पैदा नहीं करता, यह सभी जैनउत्तर ही दिया है। क्यों उत्तर नहीं दिया है, इसे शास्त्र और जैन विद्वान कहते चले आरहे हैं। पर विज्ञ पाठक समझ जावेंगे, क्योंकि उक्त हेतुका उनके प्रो. मा. उसपर गम्भीरतासे विचार नहीं कर रहे, पास कोई खण्डन ही नहीं है और इसीलिये वे मेरे यही आश्चर्य है । वेदनीय कर्म अघातिया क्यों है ? द्वारा उसका समाधान करनेकी बार-बार प्रेरणा इस बातको शास्त्रकारांने स्पष्टतया कहा है कि वह करन पर भी उस छोड़ते आ रह है। वास्तवम सुख जीवके गुणांका घातक नहीं है सुख-दुखकी वेदना व्याप्यवृत्ति है-प्रादशिक नहीं है, इसलिये केवली वह मोहनीयकी सहायता करता है इसलिये वह में जब.शाश्वत 'अकर्मज अतीन्द्रिय' सुख हो चुका अघातिया तथा घातियांके मध्यमें उक्त है। है तो फिर उसके साथ साना-साताजन्य सुख-दुःख आगे चलकर प्रो. सा. ने अरहन्तों और कदापि नहीं हो सकते, यह एक निीत तथ्य है सिद्धाम मंद दिखलाने और अरहन्त कवलीमें सुख जिसे प्रो. मा. नहीं मान रहे और उसकी उपेक्षा और दखकी वंदना सिद्ध करने के लिय धवलाकारके करते जा रहे हैं। एक अधुरं उद्धरणको अपने अर्थकं साथ उपस्थित ___अब पाठक, उनके उत्तरका भी देख, जो किया है और अन्तमें लिखा है कि 'वीरसेन म्वामीक उन्होंने मेरी पहली साध्यरूप पंक्तिका दिया है। इन प्रश्नानगंम सूर्यप्रकाशवन सुम्पष्ट हो जाता है। श्राप लिखते हैं कि 'यदि ऐसा होता तो फिर क- कि असन्तावस्था में भी वंदनीय कर्म अपने सिद्धान्तमें केवलीक साता और असाता वेदनीय उदयानुसार सबमें बाधा करता ही है जिससे कर्मका उदय माना ही क्यों जाता ? और यदि सुख- अरहन्त कंवली भगवानका मुख सिद्धांक समान दुखकी वेदनामात्रस किसी जीवके गुणका घात अव्याबाध नहीं है।' होता तो वेदनीय कर्म अघातिया क्यों माना जाता?' वीरसन स्वामीन क्या प्रश्नोत्तर दिय है उन्हें क्यों सा., यदि अग्निसे कभी धूम उत्पन्न नहीं होता पाठक, उनके पूरे उद्धरण द्वारा नाच देख :--- और कोई अग्निसे मदेव धूम माननेपर यह आपत्ति कहे कि यदि अग्निस मदेव धमात्पत्ति मानी "सिद्धानामहतां च का भेद इति चन्न, नष्टाष्टजायगी तो अग्निसे कादाचित्क धूमोत्पत्ति नहीं हो कर्मागण: सिद्धाः नष्टघातिकर्मागोऽहन्तः इति तयोसकंगी तो क्या उसका परिहार यह किया जायगा मैदः । नष्टपु घातिकस्याविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न कि यदि ऐसा न होता तो अग्निको धूमका कारण माना ही क्यों जाता ? नहीं, क्योंकि यद्यपि अग्नि गुगणकृतस्तयाभेद इति चन्न, अघातिकर्मोदय-सत्त्वोपलधूमका कारण है पर आधिनसंयुक्त होकर ही वह म्भात् । तानि शुक्लध्यानामिनार्धदग्धत्वात्सन्त्यपि न धूमको उत्पन्न करती है । दूसर, कारणके लिये यह स्वकार्यकर्तृगीति चन्न, पिराडनिपातान्यथानुपपत्तितः श्रावश्यक ही नहीं है कि वह कायोत्पत्ति नियमसे कर आयप्यादिशेषकर्मादय . सत्त्वास्तित्वसिद्धेः । ही-कर, न करें । हाँ कार्य कारणपूर्वक ही होता है। तत्कार्यम्य चतुरगीतिलक्षयान्यान्मकम्य जाति-जरा१ अापत्ति पार पाशङ्काको एक कहना ठीक नहीं है क्योंकि मरगो - पलक्षितस्य संसारम्यास यातषामात्मगुगणधातनश्रान्ति दोषापादनको और आशङ्का प्रश्नको कहते हैं, जा दोनों अलग अलग है । सामर्थ्याभावाच्च न तयागाकृतमंद इति चेन्न,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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