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________________ अनकान्त [ वर्ष तत्त्वज्ञानजन्य संतोष सुखको प्राप्त करता हुआ भी यह कौन नहीं जानता कि टीकाकार मूलके व्याख्यान उत्सेकादिभाव रहित है । इन्हीं दो पृथक् में ऊपरसे अपनी तरफसे कितने ही 'भवति, वर्तते, विशेषताओंसे यहाँ वीतरागमुनि और विद्वान्मुनि अपि, च, एव' आदि शब्दोंको जोड़ते हैं और जो अर्थात साधु परमेष्ठी और उपाध्याय परमेष्ठी ये दो मूलकी विवक्षाको खोलते हैं ? मुनिविशेष विवक्षित हुए हैं। ____ अब आपका एक तर्क और रह जाता है वह यह ___ अब प्रश्न सिर्फ यह रह जाता है कि कारिकामें कि कारिकामे एक वचनकी क्रिया है, इसलिये 'वीतरागो मुनिर्विद्वान' यह सविभक्तिक असमस्त उसका एक मुनि व्यक्ति ही कर्ता है, दो नहीं ? प्रयोग हुआ है। यदि एक ही मुनि व्यक्तिकी यहाँ क्यों साहब, एक वचनका क्रिया सविभक्तिक अनेक विवक्षा होती तो 'वीतरागविद्वान्मुनि' जैसा अवि- कर्ताओंके लिये नहीं आसकती ? और उसका भक्तिक समस्त प्रयोग किया जाता । साथम टीकाकार प्रत्यक कर्ताक साथ सम्बन्ध नहीं होसकता ? यदि श्राचार्य विद्यानन्द 'वीतरागो विद्वांश्च मुनिः' ऐसा आसकती और होसकता है तो प्रकृतने क्या अपराध प्रयोग कदापि न करते और न साथमें 'च' शब्द किया ? 'देवदत्तः, जिनदत्तः, गुरुदत्तः भोज्यताम्' देते । विद्यानन्दने भी कारिकामें जब सविभक्तिक अथवा 'चैत्रः मैत्रश्च स्वकार्य कुर्यात्' इत्यादि वाक्योंअसमम्त प्रयोग देखा और ग्रन्थकारकी उसपर यह को किसने पढ़ा और सुना नहीं है ? विवक्षा मालूम की कि वहाँ दो मुनि व्यक्ति ही उन्हें इमसे साफ है कि एकवचनकी क्रिया सविविवक्षित हैं-एक वीतरागमनि और दसरा विद्वान भक्तिक अनेक कर्ताओंके लिये भी पाती है। दूसरे, मुनि-तो उन्होंने वैसा व्याख्यान किया तथा यदि उक्त पदस कवल एक केवलो व्यक्ति ही भ्रान्ति-वारणकं लिये 'च' शब्द भी लगा दिया। ग्रन्थकारको विवक्षित हाता तो उसी केवली पदके __अतएव मैंने लिखा था कि 'जान पड़ता है रखनेमें उन्हें क्या बाधा थी? केवली अर्थक बोधक प्रो. सा. का कुछ भ्रान्ति हुई है और उनकी दृष्टि गीत वीतरागा निविद्वान' पदकी अपेक्षा 'च' शब्दपर नहीं गई है। इसीसे उन्हान बहुत बड़ा कवली' पद तो लघु ही था। अतः इन सब बातों गलता खाई है और वे 'वीतरागविद्वान् मुनि' जैसा तथा उपरोक्त विवेचनस यह स्पष्ट है कि कारिकाम एक ही पद मानकर उसका केवली अर्थ करनेमें म 'वीतरागा मुनिविद्वान्' शब्दोंमे अलग अलग प्रवृत्त हुए है ?' इसपर प्रा. सा. मुझस पूछत हुए माध और उपाध्याय मुनिरूप दा व्यक्ति ही कहते हैं कि मैं पण्डितजीस पछता हूँ कि 'च' शब्द __ विक्षित हैं। पर मेरी ही दृष्टि नहीं गई या स्वयं प्राप्तमीमांसाकारकी भी नहीं गई, क्योंकि उनकी कारिकामें भी 'च' कहीं दिखाई नहीं देता।' प्रा. सा. के इस हतुरूप कथन- मम्मत नहीं हैं:को पढ़कर विद्वानोंको हैमी आये बिना न रहेगी। क्योंकि आप्तमीमांसाकी इस कारिकाको जिसने पढ़ा केवलीमं सुख-दुखकी वेदनाएं माननेपर मैंने अथवा पढ़ाया है वह जानता है कि आप्तमीमांसा निम्न आपत्ति दी थी और लिखा था कि 'केवलीक पद्यात्मक और सूत्रात्मक रचना है उसमें जितने सख-दुखकी वेदना माननेपर उनके अनन्त सुख शब्दोंको देनेकी गुञ्जाइश थी उतने शब्द द दिये हैं। नहीं बन सकता, जिस स्वयं प्राप्तमीमांसाकारने भी दूसरे, उन्होंने 'वीतरागो मुनिः विद्वान्' ऐसा 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' शब्दों द्वारा स्वीकार किया विभक्ति प्रयोग ही कर दिया है और इस लिये है; क्योंकि सजातीय-व्याप्यवृत्ति दो गुण एक जगह मूलकारको 'च' शब्द देनेकी आवश्यकता नहीं थी। नहीं रह सकते।'
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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