SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ६-७] बङ्गालके कुछ प्राचीन जैनस्थल २६१ (पृ० २५६ का शेषांश) । (३) 'पर्याप्त शन्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नहीं है जाय तो उस समय दोनों ही परम्पराएँ अपनी अपनी उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीतविपाकी प्रगति करने में अग्रसर थीं । अतः उस समय यदि सचेल प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पर्याप्तक कहा पुरुष मूर्तियां भी निर्मित कराई गई हो तो आश्चर्य ही नहीं जाता है। है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग है और अपने में अधिक- (४) पं० माखनलालजी शास्त्रीने जो भावस्त्र में तम दूरी ला रहे है और लाते जा रहे हैं। समय सम्यग्दृष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्वलित आये और हम तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना और सिद्धान्तविरुद्ध है। स्त्रीवेदकी उदय व्युग्छित्ति दूमरे है। और यदि सम्भव हो तो हम पुन: आपसमें एक हो जावें ही गुणस्थानमें हो जाती है और इसलिये अपर्याप्त अवस्थामें तथा भगवान महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासन- भावस्त्री चौथा गुणस्थान कदापि संभव नहीं है। . को विश्वव्यापी बनाये। (५) वीरसेन स्वामीके 'अस्मादेवार्षाद' इत्यादि कथनसे उपसंहार सूत्रमें 'संजद' पदका टीकाद्वारा स्पष्टतया समर्थन होता है। उपरोक्त विवेचनके प्रकाश में निम्न परिणाम सामने - (६) द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका कथन मुख्यतया चरणापाते हैं : नुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षटखण्डागम करणानुगोग (१) षट्खण्डागममें समय कथन भावकी अपेक्षासे है, इसलिये उसमें उनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन नहीं किया गया है और इसलिये उसमें द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंकी किया गया है । द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय चर्चा नहीं पाई। प्रमाणों, हेतुत्रों, पुरातत्वके अवशेषों, ऐतिहासिक तथ्यो . (२)६३वे सूत्र में संजद' पदका होना न श्रागमसे विरुद्ध प्रादिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियों के है और न युक्तिसे । बल्कि न होने में इस योगमार्गणा गुणस्थानोंका विधान न मिलनेसे श्वेताम्बर मान्यताका सम्बन्धी मनुष्यनियों में १४ गुणस्थानोंके कथनके प्रभावका अनुषंग नहीं प्रासकता। प्रसंग, वीरसेन स्वामीके टोकागत संजद पदके समर्थनकी आशा हैसूत्रमें वें 'संजद' पदका विरोध न किया असंगति और राजवातिककार प्रकलंकदेवके पर्याप्त. जायगा और उसमें उसकी स्थिति अवश्य स्वीकार की मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंको बतलानेकी प्रसंगति आदि जाएगी। कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं। वीरसेवामन्दिर, ता. ६-६-१६४६ | बंगालके कुछ प्राचीन जैनस्थल (ले०-बा० ज्योतिप्रसाद जैन, एम. ए.) > = एनल्प श्राफ दी भंडारकर भोरियंटल रिसर्च इस्टी-व्य. वरन कुछएक विशेष महत्वपूर्ण स्थानोंके इतिहासपर ही की जिलद नं० २६का भाग ३-४ (संयुक्त) अभी हालमें संक्षिप्त प्रकाश डाला है। ही प्रकाशित हुमा है। उसके पृष्ठ 100 पर विमका खेखपरसे, प्राचीन काल में निम्न लिखित स्थानों के चरण लाका एक लेख "बंगालके प्राचीन ऐतिहासिक साथ जैनधर्मका सम्बन्ध प्या होता है:स्थम" नामका प्रकट हुआ है। इस लेखमें विद्वान देखकने पहाइपरवंगदेशके सभी प्राचीन स्थानोंका विवेचन नहीं किया है, इस मगरके ध्वंसावशेष बंगालके शिले राजशाहीमें,
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy