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________________ किरण १० ११ ] महाकवि बनारसीदास और उनके ग्रन्थोंकी हम्नलिखित प्रतियाँ भन्न पृष्टिकटिग्रीवा बद्धमुष्टिरघो मुखम् हैं, जो प्रेमीजी-जैसे विद्वानके लिये क्षम्य नहीं । कप्टन लिखितं शास्त्रं. यत्नेन परिपालयेत ॥२॥ उदाहरणार्थ, प्रेमीजीने लिखा है-"हीरानन्द मकिम. ये ओसवाल जैन और जगत सेठके वंशज थे" इसमें भी बनारसीदासजीके समस्त ग्रंथोंका (पृ.८२)। हीरानन्दको जगतसेठका वंशज लिखना सङ्कलन है। इस प्रतिमें 'समयसार' नाटक भी लिखा किसी भी दृधिसे उचित नहीं। न कोई ऐसा प्रमाण गया है। इसकी लिपि बड़ी सुन्दर और मोड़पर ही मिलता है, जो इन्हें जगतसेठका वंशज प्रमाणित गजरातीका स्पष्ट प्रभाव है, जो स्वाभाविक ही है, कर सके। आज तक प्रकाशित सभी ऐतिहासिक क्योंकि गुजरात देशम खम्भातम यह लिखी गई है। एतद्विषयक साधनासं भलीभाँति मिद्ध किया जाचका इमसे यह भी मालूम होता है कि गुजरातम भी है कि हीरानन्दके पौत्र और माणिकचन्दके पत्र बनारसीदासजीके मतका प्रचार ग्वब जागेपर रहा फतहचन्दको दिल्लीक बादशाहने जगतसंठकी उत्तम होगा । मुल गुटका कलकत्ताके विख्यात नाहर- पदवीस विभूषित किया। हमसे तो हीरानन्द जगतमंग्रहालयम मुरक्षित है । इसकी दो प्रतियाँ रॉयल संठकं वशज न होकर पूर्वज हए, जो यथार्थ है। हम एशियाटिक सोसाइटी और ९६ केनिङ्ग स्ट्रीट, अभी हाल ही में एक एसा एतिहासिक पा मिला है, कलकत्ता-स्थित जैन-संग्रहालयमं भी विद्यमान है। जिसमें जगतसंठकी माता और जगतसंठका इतिहास पर हमने उनका निरीक्षण नहीं किया। वर्णिन है । इसे निहाल नामक एक जैन यतिने, जो ८-अद्ध कथानक (१." . ६|" इञ्च)- "इति इनके माथ बहुत वर्षों तक रहा था, पौष कृष्णा श्रीअद्धकथानक अधिकार सम्पूर्ण ।। श्रीबनारसीदास त्रयोदशी वि० सं०१७५८को मक्सदाबादमें लिखा। जी कृतिरियं । शोक मख्या एक १००० ।। श्रीस्ताल्लेखक इममें जगतमंट-विपयक उल्लेग्व इस प्रकार है:पाठकोम्मदा ।। कल्याण भवतु॥" भारतीय महिन्य देश बंगाल उत्तम दंश, आप मागिाकचन्द नरेश में, और ग्वामकर हिन्दी-भापाके मध्यकालीन माहित्य में 'अर्द्धकथानक' बहुत ही मूल्यवान कति मानी जाती नाग नगर मकसूदाबाद, कर काटी कीनों आबाद।। है। जैनोंकी यह हिन्दी-साहित्यको सबसे बड़ी दन गजा प्रजा अर उमरा प, फोजदार मृबा निवाब कहा जाय, तो अनुचित न होगा। इसका प्रकाशन सहकामाने हुकुमममांगा, दिल्ली पनि अति सनमान ।१० डा० माताप्रमादजी गुप्त और श्रीनाथूरामजी द्वारा पातम्याह श्री फरक साह, संट पदस्थ दीया उछाह हुआ है । इसकी एक प्रति रॉयल एशियाटिक मोमाइटीक मंग्रहालयमें (ग्रन्थ मंख्या ७१७६) सुरक्षित मा" माणिकचन्द सटन नाम, फिरी दुहाई ठांमोटांम ।११ है। आश्चर्य तो इस बातका है कि उपर्यक्त दोनों देश बंगाला कग चगी. दिन-दिन संतति सम्पति धी मंम्कर गोंक मम्पादक महोदयोंन इसका उपयोग न जाके पत्र मुन्द्रि समान. प्रगटै फतचन्द म ग्यांन ।१२ जाने क्यों नहीं किया। यह प्रति गुटकाकार है। दिली जाय दिलीपति भट, नाम किताब दिया जगसेट लेग्वन-काल-सूचक संवन इसमें भी नहीं है, तथापि १३ लिपिके आधारपर निश्चित रूपसे कहा जा सकता है जगतगट जगान अवतार, कि यह १९वीं शताब्दीकी होनी चाहिए । प्रति बड़ी इस उल्लेग्यम स्पष्ट प्रकट है कि फतै चन्द ही, जो सुन्दर है। हीरानन्दकं वंशज थे, प्रथम जगतशेठ थे । वि. मं० श्रीनाथूरामजी प्रेमी द्वाग प्रकाशित ग्रन्थ बडा १८९० की रघुनाथ द्वाग निमित लौकागच्छीय सुन्दर और परिशिष्टादिस इतिहामके अभ्यासियोंके पदावलीसे जाना जाता है कि दिल्लीके बादशाहने लिये तो अपूर्व होगया है । पर इसमें कुछ भूलें ऐसी हीगनन्दको शंठकी उपाधि दी थी, जगनशेठकी
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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