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________________ ४०८ अनेकान्त नहीं । यह आमतौर से देखा जाता है कि राजामहाराजा बड़े धनी गृहस्थोंको शेठकी पदवी दे दिया करते थे । इस प्रकार बनारसीदासजी - निर्मित ग्रन्थ जैन ज्ञान-भण्डारोंमें बहुतायत से प्राप्त होते हैं, क्योंकि किसी भी सम्प्रदायका तत्त्वेच्छुक इनसे बहुत लाभ उठा सकता है। यदि उन और प्रस्तुत निबन्धमें उल्लिखित आदर्श प्रतियों के आधारपर सम्पूर्ण बनारसीग्रन्थावलीका वैज्ञानिक ढङ्गसे सम्पादन किया जाय, तो हिन्दी भाषाका मुख उज्ज्वल हुए बिना न रहेगा । यद्यपि श्री नाथूरामजी प्रेमीने बहुत वर्ष पूर्व ' बनारसी - विलास' का प्रकाशन किया था, [ वर्ष ८ पर अब तो उसका मिलना ही असम्भव हो गया है। हमें आशा है, जैन समाज अपने इस अद्वितीय महाकवि और आध्यात्मिक संस्कृति के रक्षकके द्वारा निर्मित समस्त ग्रन्थोंका विस्तृत भूमिका सहित उत्तम संस्करण प्रकाशित करेगा । हिन्दी के बहुसंख्यक उत्कृष्ट कवियों द्वारा निर्मित विभिन्न कविताओं की प्राचीन प्रतियाँ पुराने ज्ञानभण्डारोंमें प्राप्त होती हैं; उन सभीका अध्ययनकर इस प्रकार प्रकाश डाला जाना अत्यावश्यक है । इनका महत्व भाषा - विज्ञान की दृष्टिसे बहुत बड़ा है । अस्तु । - विशाल भारतमे उद्धत रक्षा बंधनका प्रारम्भ ( लेखक - पं० बालचन्द्र जैन, साहित्यशास्त्री, बी० ए०, विशारद ) -mum ग्र लका-सी श्रवन्तीपुरी अरुणोदयके साथ ही तरुण हो गई । शयनकक्षमे निकलते ही राजा श्रीवर्माको उपवनके मालीने झुककर महाराजकी जय' कहकर अभिवादन किया । विविध पुष्पफलादि भेंटकर उसने निवेदन किया | महाराज ! सातमौ दिगम्बर मुनियोंके साथ आचार्य अकम्पन नगरके उपवन में पधारे हैं। राजाके हर्षका ठिकाना न रहा, 'साधु-सन्तोंके दर्शन सौभाग्य से ही मिलते हैं' आज्ञा दी - मन्त्रिको भी इसकी सूचना दो और निवेदन करो कि मैं साधुयोंके दर्शनकर सुख-लाभ करूंगा । माली 'जो यज्ञ।' कहकर चल दिया । X X X मन्त्रियोंने जब यह आज्ञा सुनी तो सन्न रह गए । 'नग्न मुनियोंके दर्शन ! नहीं, यह तो महापाप है' 'घृणा और विवशता के विषम थपेड़ों में बेचारोंकी दुर्गात हो गई। उन्हें कोई अवलम्ब ही न सृता था जिसके सहारे इस महापापकी नदीके विकट प्रवाह में बहने से अपने को बचा सकें । आखिर क्या करते, गजाज्ञा ही तो ठहरी । 'पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं' हाथ बाँधे दौड़े आए। 'आप उन नंगोंके दर्शन करने जायेंगे महाराज !" प्रधानसचिव बलिने नाक-भौं सिकोड़ी। 'हां मन्त्रिमहोदय ! माधु कभी प्रदर्शनीय नहीं होते' राजाने सरल उत्तर दिया । 'पर वे तो नङ्ग-धड़ङ्ग रहते हैं महाराज ! निरे निर्लज्ज हैं, वे साधु कैसे हो सकते हैं ?' दूसरे मन्त्रीने आपत्ति की । मन्त्री के ये वाक्य राजाको अनुचित ऊँचे पर इसे प्रकट न करते हुए उसने शान्त स्वर में इसका उत्तर दिया 'नङ्गा वही रह सकता है जिसके मनोविकार प्रशान्त हो चुके हैं, जिसकी दृढ़ इच्छा शक्ति के सन्मुख वे टिक नहीं
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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