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________________ रावणा-पार्श्वनाथ स्तोत्र कोई १५ वर्ष हुए, कैराना जि० मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुए, मुझे एक पटपत्रात्मक ग्रन्थसंग्रह पर से इस स्तोत्रकी प्राप्ति हुई थी और २० जनवरी सन् १६३३को मैंने इसकी प्रतिलिपि की थी। यह स्तोत्र श्रीपद्मनन्दी मुनिका रचा हुया है और रावण-पत्तनके अधिपति अर्थात वहाँ स्थित देवालयके मूलनायक श्रीपार्श्वनाजिनेन्द्र से सम्बन्धित है: जैसाकि अन्तिम पद्यसे प्रकट है। मालूम नहीं यह 'रावणपत्तन' कहाँ स्थित है और उसमें पार्श्वनाथका यह देवालय (जैनमन्दिर) अब भी मौजद है या कि नहीं, इसकी खोज होनी चाहिये । यह भी मालूम नहीं कि ये पद्मनन्दी कोनम पद्मनन्दी मुनि है: क्योंकि 'पद्मनन्दी' नामके अनेक मुनि, प्राचार्य और भहारक होगये हैं । हाँ, पद्मनन्दी मुनिका बनाया हया एक 'जीरापानी पाश्वनाथ स्तोत्र' भी उपलब्ध है, जिसकी गत फर्वरी (१६४७) माम में मुझे कानपुर पञ्चायती बड़े मन्दिरके एक गुटकपरमे प्रामि हुई है और उसके अन्तिम (१०) पद्यमें पानन्दीने अपने गुरुका नाम 'प्रभेन्दु (प्रभाचन्द्र) प्रकट किया है। बहुत संभव है कि ये दोनों स्तोत्र एक ही 'पद्मनन्दीकी रचना हो; क्योंकि दोनोंमें शब्दों और भावोंका कितना ही माम्य पाया जाता है। यदि मा है तो यह स्तोत्र विक्रमकी ५५वीं शताब्दीका-याजसे कोई ५५० वर्ष पहलेका बना हुआ होना चाहिए: क्योंकि प्रभाचन्द्र के पह-शिष्य पद्मनन्दी प्रतिमा लेखादिपरस इमी समयके जान पड़ते हैं। इन्होंने ग्रादिनाथकी ममवसरण महित धातुप्रतिमाकी प्रतिष्ठा संवत १४५० में कराई थी, जो इम ममय मैनपुरी मन्दिर कटरा में माजद है (जैन मि० भा० भाग २, कि० १)। यह स्तोत्र बड़ा सुन्दर तथा भावपृण है और अच्छे प्रोढ़ माहित्यका लिग हप है । दृम किसी भी शास्त्र भण्डारमें भी अभी तक यह स्तोत्र देखने को नहीं मिला। एक नई ही चीज जान पड़ता है। इसीम अाज इस प्रकाशित किया जाता है। -समादक ( वसन्ततिलका) यच्छुद्ध-बोध-जलधि समुपाम्य भाम्वदन-त्रयं शिव-सुखाय समासमाद । लोकं विलोकित-समस्त-पदार्थ-माथै श्रीपाश्वनाथमनघं तमहं नमामि ।।१।। उत्पत्तिभून जलधि: शशि-कौस्तुभाद्या नो बान्धवा मुर-रिपोवमतिन वक्षः । यस्याः कर न कमल कमला मुदं मा पाश्वप्रभाविशद-बोध-मयी विदध्यान ।।। यनात्मनात्मनि निवेश्य मुनिःप्रकम्पमालाकिनं गवांध-मयं म्वरूपम । व्यामोह-विभ्रम-भिदालम-शक्ति-धामा पार्श्वप्रभुः [प्रभवताइव-नाप-शान्त्य ।।शा अस्त्रं विनाऽपि मदनाऽरिमपाचकार यः शील-शैल-शिखिरासन-मंस्थितान्तः । अव्यात्स दिव्य-जनता-जनितीम-धम: मच्छम-हय॑मपहम्तिन-कम-घमः ।।४।। यम्याऽत्र विनिशनी रमना: प्रमिद्धाम्तम्याऽपि शक्तिरसती भुजगेश्वरम्य । यत्संम्तवे विबुध-संस्तुत-पाद-पद्मं तं संम्वन्कथमहं न हि हाम्य-धामा ||५|| वैयात्यमत्यजिननाथ तथाऽपि किंचिच्छक्ति-च्युतोऽपि नव भक्ति-भरे: करिष्य । कि वा न शैल-शिवराच-गृहाऽग्र-भाग नि:अंगिकाभिरधिरोहति वामनोऽपि ||| यम्त गणोघ-गणनां गुगा-रत्न-गश: मम्यचिकीपति हपीक-विका(घा)नकम्य । पार्थानिधेः स पयमां कलशेः प्रमाणमभ्यम्यतु प्रतिदिनं प्रयनान्तरङ्गः ।।७।। शान्तं पुरागा-पुरुपं परमाथ-सारमानन्द-मेदरमनन्त-सुखं विगगम । चिद्रपज्झित-समम्त-जगत्प्रपञ्चं त्वा नौमि नित्यमजरं प्रमरप्रतापम ।।।। SHA
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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