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________________ कविवर लक्ष्मणा और जिनदत्तचरित (लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री) | रतीय साहित्यमें अपभ्रंश भाषा वंशमें उत्पन्न हुए थे । इस वंशके लिये ग्रंथमें कितनी लोकप्रिय रही है यह उसके 'जायस' और 'जायव' जैसे शब्दोंका प्रयोग किया साहित्यके अध्ययनसे स्पष्ट जाना हो गया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि इस वंशका यादव अथवा यदुवंशसे भी कोई सम्बन्ध रहा है; जाता है । इस भाषामें विक्रम क्योंकि यादववंश प्रसिद्ध क्षत्रियवंश है जिसमें श्रीकृष्ण सं० १७०० तक ग्रंथ रचना होता रहा है। वतमानम श्रादि महापरुषोंने जन्म लिया है। यह हो सकता है अपभ्रंश भापाका साहित्य इसाकी सातवीं सदीसे कि दोनों वश एक हो और यह भी सम्भव है कि १७वी सदी तकका उपलब्ध है। यद्यपि इस भापामें लेखकने ही 'स' को 'व' पढ़ा हो। कुछ भी हो, इस अधिकतर चरित, पुराण और कथा ग्रन्थोंकी ही सम्बन्धमें खोज होने की जरूरत है। रचना की गई है, किन्तु रासा, स्तुति-पूजा विषयक साहित्य तथा आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक और कविने अपने पूर्वजोंका परिचय कराते हुए श्रीपदेशिक साहित्यकी भी कमी नहीं है जो मुमुक्षु लिखा है कि जायस अथवा जायववंशके नरनाथ जीवोंके लिये विशेष उपयोगी है। इस भापाकी कोसवाल थे जिनके यशरूपी रससे दिक चक्र मुद्रित सबसे बड़ी विशेषता उसका सहज अथवा बंद हो गया था। यह कविके बाबा थे। इनकी जनताको अपनी ओर आकृष्ट करता है। चौपाई, पत्नीका नाम जिनमती था, उनके सात पुत्र थे, पड़िया, दोहा, घत्ता आदि छन्द भी इस भाषाकी अल्हण, गाहल, साहुल, सोहण, मइल्ल, रतन और खास देन हैं। जैन विद्वानोंने इस भाषाको खूब मदन । ये सातों ही पुत्र कामदेवके समान सुन्दर पल्लवित किया है और उसे जनताके हृदयका हार रूप वाले और महामति थे । इनमेंसे कवि लक्ष्मणके अथवा कण्ठका भूपण बनानेका प्रयत्न किया है। पिता श्री साहुल श्रेष्ठी थे। ये सातों भाई और कवि आज अनेकान्तके पाठकोंको विक्रमकी १३वीं शताब्दी लक्ष्मण अपने परिवार सहित पहले त्रिभुवन गिरि के एक ऐसे ही अपभ्रंश भाषाके चरित ग्रंथ और पर निवास करते थे। उस समय त्रिभूवनगिरि जन उसके कर्ताका परिचय दे रहा हूँ जो अब तक धनसे समृद्ध तथा वैभवसे युक्त था; परन्तु कुछ अप्रकाशित है। समय बाद त्रिभुवन गरि विनष्ट होगया था--उसे प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'जिनदत्तचरिउ' अर्थात म्लेच्छाधिपने बलपूर्वक घेरा डालकर नष्ट भ्रष्ट कर जिनदत्तचरित है। इसमें अरुहदत्त (अहहत्त) श्रेष्ठी आत्मसात् कर लिया था। परन्तु प्रशस्तिपरसे यह के सुपुत्र जिनदत्त नामके एक सेठकी जीवन मालूम नहीं होता कि यह स्थान कहाँ था और किस किरणोंका परिचय कराया गया है । ग्रन्थमें छः म्लेच्छाधिपने वहाँ कब्जा किया था, उस समय सन्धियाँ हैं और वह चार हजार श्लोकों जितनी पद्य- संवत् क्या था और उससे पूर्व वहाँ किसका राज्य था संख्याको लिये हुए है। इस ग्रन्थके कर्ता कवि आदि। और न अन्यत्रसे ही इसका कोई समर्थन होता लक्ष्मण या लाग्खू हैं, जो जायस अथवा जैसवाल है। अस्तु, कविवर लक्ष्मण त्रिभुवन गरिसे भागकर
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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