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________________ किरण १०-११ ] तेरह काठिया ३९७ आर्ष-ग्रन्थोंका अनुकरण और शुद्ध सच्चे जैनधर्मका पण्डित बनारसीदास पक्के परीक्षाप्रधानी, स्वतन्त्र प्रतिपादन है। पं० बनारसीदासजीके प्रचार और विचार एवं मौलिक सूझके व्यक्ति थे । स्वयं आन्दोलनका यह प्रभाव हुआ कि जैन जनता अनुभव करके अथवा अपनेपर ही प्रयोग करके, शिथिलाचारी भट्टारकों और यतियोंके चंगुलमेंसे आशयको भलीभाँति बुद्धि और मनसे ग्राह्य होनेपर निकलकर शुद्ध जैन श्राम्नायकी ओर प्रवृत्त हुई, ही वे किसी बातको माननेके लिये प्रवृत्त होते थे। और इसी कारण इन पण्डितप्रवरको दिगम्बर एकबार अध्यात्मिक ग्रन्थोंके तथ्यको न समझ सकने सम्प्रदायके मध्यकालीन शुद्धआम्नायका प्रवतक के कारण वे और उनके तीन अन्य मित्र बहक गये, कहा जाता है। इस शुद्ध आम्नायके अनुयायी ही उनकी इस बहकी हुई अवस्थाका जो लोगोंने मजाक दिगम्बर तेरह-पन्थी कहलाते हैं । पण्डितजीक उड़ाया वह स्वयं पं० जीके शब्दोंमें इस प्रकार हैसमकालीन अथवा थोड़े ही पीछे होने वाले "कहहि लोग श्रावक अरुजती, श्वेताम्बर यति मेघविजयने अपने प्राकृत ग्रन्थ बानारसी 'खामरामती''-अर्द्धकथानक पद्य ६०८ 'युक्तिप्रबोध' तथा उसकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीकामं क्या आश्चर्य है कि उपरिवर्णित 'त्रयोदश उनके इम समयोपयोगी सुधारको 'बनारसिया पन्थ' काठिया' पण्डितजीकी अपनी निजी सूझ हो और और उसके समर्थकों एवं अनुयायियोंको 'बनरसिया उसमें उन्होंन शिथिलाचारी भट्रारकों और यतियों के पन्थी' कहकर मजाक उड़ाया है । और इस तथा उनके अनुयायियोंके प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाले 'बनारसी मत' की उत्पत्ति वि० सं० १६८ में हुई तरह मांट दापोंका चित्रण किया हो जोकि स्पष्टतया बनाई है । पं० बखतरामजीन अपने 'बुद्धि विलास' वास्तविक धर्मकी हानि करने वाले हैं, रत्नत्रयरूप ग्रन्थम दिगम्बर तेरह पंथकी उत्पत्ति वि० सं० १६८३ आत्मीक धनको लूटने वाले वटमार डाक हैं तथा में हुई बताई है। पं० बनारसीदासजीके सम- मंसारी मनुष्यकी दशाको तेरह तीन करने वाले हैं, कालीन आगरा निवासी सुप्रसिद्ध श्वेताम्बराचाय और जनताको इन तेरह दोपांस सदैव मावधान यशोविजयजीने उनके मतको 'माम्प्रतिक अध्यात्म- रहने, बचने एवं उनका निराकरण करते रहकर सच्चे मत' अर्थात हालका ही पैदा हुआ अध्यात्ममत कहा अर्थीम धार्मिक और वास्तविक जैन बननेका अर्थात है, और उसके खण्डनमें 'अध्यात्ममतपरीक्षा' दिगम्बर शुद्ध आम्नाय अथवा उपयुक्त तेरह दोपोंव 'अध्यात्ममत खण्डन' लिखे। स्वयं पण्डितजीन को टालने वाले तेरहपन्थका अनुयायी बननेका अपने आपको तथा अपने साथियोंको 'अध्यात्मी' प्रचार किया हो। इममें उन्हें आशातीत सफलता कहा है ! अत: जैसी कि श्रद्धेय प्रेमीजीकी राय हे,' भी मिली। अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर गृहस्थ भट्रारक विरोधी दिगम्बर तेरहपंथ अथवा शुद्ध उनके अनुयायी होगय, किन्तु शिथिलाचारियोंको यह आम्नायके मुख्य प्रवर्तक कविवर पं० बनारमीदास- कैसे सहन होसकता था। उनसे कुछ और तो बन जा ही थे और उस समय इसे 'बानारसी मत' या नहीं पड़ा, उन्होंने इन शुद्ध श्राम्नायी तेरह पंथियोंअध्यात्ममत नाम दिया गया था । वास्तव में के विरुद्ध विष वमन करना शुरु कर दिया, उनके १ प्रेमी-जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३६७.६८। मतकं ग्वण्डनमें ग्रन्थ लिग्वे, उन्ह 'काठिया' अपशब्द २ वही-पृ. ३६६ । से सम्बोधित किया, और पण्डितजी द्वारा गिनाये ३ अद्ध कथानक-जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बई- गये त्याज्य तेरह दोषांका उन्हीं के अनुयायियोम म. पृ. १७,१६ । आरोप किया । प्रस्तुत भट्टारकीय मनोवृत्ति वाले ४ अद्ध कथानक-पद्य ६७१ । पद्य इस बातकं ज्वलन्त उदाहरण हैं, और बहुत ५ प्रेमी-जै. भा. इ. पृ. ३६७ । (शेष पृष्ठ ४०१ पर )
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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