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________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र ३०९ पm लोह मोहनीय की उत्तर प्रकृतियोंका कोई नामोल्लेख तक हुए शरीर-बन्धन नामकर्मकी पाँच प्रकृतियों तक न करके एकदम २६वीं गाथामें यह प्रतिपादन ही कथन किया गया है :किया गया है कि मिथ्यात्वद्रव्य (जो कि मोहनीय "चारित्तमोहणीयं दुविहं कसायवेदणीयं कमेका दर्शनमाहरूप एक प्रधान भेद है) तीन भेदांन गोकसायवेदीयं चेड़ । कसायवेदीयं सोलसविहं कैस बँटकर तीन प्रकृतिरूप हो जाता है। परन्तु जब पहलेसे मोहनीयके दो भेदों और दर्शनमोहनीयक तीन खवणं पडुच्च अणंताणुबंधि-कोह-माण-माया लोहं उपभेदोंका कोई निर्देश नहीं तब वे तीन उपभेद अपच्चरखागा - पञ्चरखागावरण-कोह-मागा-माया-लोहं कैसे हो जाते हैं यह बतलाना कुछ खटकता हा कोह.संजलगां मागा-संजलगां माया-सं जरूर जान पड़ता है, और इमीसे दोनों गाथाांक संजनगां चेड़ । पक्रमदवं पहच्च अगताणबंधि-लोहमध्यमें किसी अंशके त्रुटित होनेकी कल्पना की जाती है। मृडबिद्रीको उक्त प्राचीन प्रतिमें दानोंके मध्यमें। " माया कोह - नाणं संजलगा - लोह -माया-कोह - माणं निम्न गद्यसूत्र उपलब्ध होते हैं: पञ्चक्रवागा-लोह-माया-कोह-मागां अपञ्चक्खाण-लोह__ "वेदनीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदगीयं माया-कोह-मागं चेइ । गाकसायवेदगीयं णवविहं चेइ । मोहणीयं दुविहं दसगमोहणीयं चारित्तमोहनीयं पुरिसित्थिगाउंसयवेदं रदि-अरदि-हस्स-सोग-भय-दुगुंचेइ । दसणमोहणीयं बंबादो एयविहं मिच्छत्तं, छा चेदि । आउगं चउविहं गिरयायुगं तिरिक्खउदयं संतं पडुच्च तिहिं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं माणुस्स-देवाउगं चंदि । गामं बादालीसं पिंडापिंडसम्मत्तं चेइ ।" पयडिभयेगा गयि-जायि-सरीर-बंधगा-संघाद-संठागण____ उक्त दशनमोहनीयकं भेदोंकी प्रतिपादक :६वीं अंगोरंग - संघडगा वगगा - गंध -रस-फास-आणुपुथ्वीगाथाके बाद चारित्रमोहनीयकी मूलीत्तर प्रकृतियों, अनुरुगलहगुवघाद - परघाद-उस्सास-आदाव-उज्जोदआयुकर्मकी प्रकृतियों और नामकमको प्रकृतियोंका कोई नाम निर्देश न करके २७वीं गाथामें एकदम विहायगयि-तस -थावर बादर - सुहुम - पज्जत्तापज्जत्तकिसी कर्मके १५ मयोगी भेदोंका गिनाया गया है, पत्तय-साहारगासरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुब्भगजो नामकर्मकी शरोर-बन्धनप्रकृतियोंसे सम्बन्ध सुम्सर-दुम्मर-याद जागादज्जजसाजसकितिणिमिणरखते हैं; परन्तु वह कर्म कोनसा है और उसकी तित्ययम्गणामं चेदि । तत्थ गयिणामं चउविहं गिरयकिन प्रकृतियोंके ये मंयोगी भेद होते हैं, यह मब उस परसे ठीक तौर पर जाना नहीं जाता। और तिरिक्वगविगाम मगाव-देवगयिगणामं चेदि । जायिइसलिये वह अपने कथनकी मङ्गनिके लिये पूवमें गाम पंचविहं एइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउइंदियकिसी ऐसे कथनके अस्तित्वकी कल्पनाको जन्म जायिगाामं पंचिंदियनायिगगामं चेदि । सरीरणाम पंचदेती है जो किसी तरह छूट गया अथवा त्रुटित हो विहं ओरालिय गुलियय-आहार तेज-कम्मइयसरीरगया है। वह कथन मूडबिद्रीका उक्त प्रतिमें निम्न गद्य सूत्रों में पाया जाता है, जिससे उतर-कथनकी गणाम चई। सराबधगागणाम पचावह आरालि संगति ठीक बैठ जाती है; क्योंकि इनमें चारित्र- वेगुब्धिय-आहार-तेज-कम्मइय-सरीरबंधणगामं चेइ ।" मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी मूल ४२ २७वीं गाथाके बाद जो २८वीं गाथा है उसमें प्रकृतियोंका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके शरीरमें होने वाले आठ अङ्गोंके नाम देकर शेषको जाति आदि भेदोंकी उत्तरप्रकृतियोंका उल्लेख करते उपाङ्ग बतलाया है; परन्तु उस परसे यह मालूम
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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