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________________ ३१० अनेकान्त [ वर्ष ८ नहीं होता कि ये अङ्ग कौनसे शरीर अथवा शरीरोंमें दृष्टिसे ही शरीरबन्धनादिके बाद २८वीं गाथामें होते हैं। पूर्वकी गाथा नं० २७ में शरीरबन्धन- अङ्गोपाङ्गका कथन किया गया है, अन्यथा तत्त्वार्थसम्बन्धी १५ संयोगी भेदोंकी सूचना करते हुए तैजस सूत्रकी दृष्टिसे वह कथन शरीरबन्धनादिकी और कार्माण नामके शरीरोंका तो स्पष्ट उल्लेख है प्रकृतियोंके पूर्वमें ही होना चाहिये था; क्योंकि शेष तीनका 'तिए' पदके द्वारा संकेत मात्र है; परन्तु तत्त्वाथसूत्रमें "शरीराङ्गोपाङ्ग निर्माण-बन्धन-संघातउनका नामोल्लेख पहलेकी भी किसी गाथामें नहीं संस्थान-संहनन" इस क्रमसे कथन है। और इससे है, तब उन अङ्गों-उपाङ्गोंको तैजस और कार्माणके नामकर्म-विषयक उक्त सूत्रोंकी स्थिति और भी अङ्ग-उपाङ्ग समझा जाय अथवा पाँचामसे प्रत्यक सबढ़ होती है। शरीरके अङ्ग-उपाङ्ग ? तैजस और कार्माण शरीरके अङ्गोपाङ्ग मानने पर सिद्धान्तका विरोध आता है; २८वीं गाथाके अनन्तर चार गाथाओं (नं० २९, क्योंकि सिद्धांतमें इन दोनों शरीरोंके अङ्गोपाङ नहीं ३०, ३१, ३२) में संहननोंका, जिनकी संख्या छह माने गये हैं और इसलिये प्रत्येक शरीरके अको सूचित की है, वणन है अथात प्रथम तीन गाथाओंम पाङ्ग भी उन्हें नहीं कहा जा सकता है। शेष तीन यह बतलाया है कि किस किम संहननवाला जीव शरीरोंमसे कौनसे शरीरके अङ्गोपाङ यहाँ स्वगादि तथा नरकाम कहाँ तक जाता अथवा मरकर विक्षित हैं यह संदिग्ध है। अतः गाथा नं. २८ का - उत्पन्न होता है और चौथी (नं० ३२) में यह प्रनिकथन अपने विपयमें अस्पष्ट तथा अधराई और पादित किया है कि 'कर्मभूमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन उसकी स्पष्टता तथा पूर्ति के लिये अपने पूर्व में किसी सहननाका ही उदय रहता है, आदिके तीन संहनन दुसरे कथनकी अपेक्षा रखता है । वह कथन मूड - तो उनके होते ही नहीं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है।' बिद्रीकी उक्त प्रतिमें दोनों गाथाओंके मध्यमें उपलब्ध परन्तु ठीक क्रम-आदिको लिये हुए छहों संहननोंके होने वाले निम्न गद्यसूत्रों से अन्तके सूत्रमें पाया नामोंका उल्लेख नहीं किया-मात्र चार संहननोंके जाता है, जो उक्त २८वीं गाथाके ठीक पूर्ववर्ती है नाम ही इन गाथाओंपरसे उपलब्ध होते हैं, जिससे और जिसमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक इन 'आदिमतिगमहडणं', 'अंतिमतिय मंहडणम्स', 'तिद्तीन शरीरोंकी दृष्टिसे अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके तीन गंगे महडणे,' और 'पणचदुरंगमहडणो' जैसे पदोंका भंद किये हैं और इस तरह इन तीन शरीरोंमें ही ठीक अर्थ घटित हो सकता। और न यही बतलाया अङ्गोपाङ्ग होते हैं ऐसा निर्दिष्ट किया है :- है कि ये छहों संहनन कौनसे कर्मकी प्रकृतियाँ हैं"सरीरसंघादणामं पंचविहं ओरालिय - वेगुठियय पूर्वकी किसी गाथापरसं भी छहों के नाम नामकर्मके नाम __ सहित उपलब्ध नहीं होते। और इसलिये इन चारों आहार-तेज-कम्मइय-सरीरसंघादगामं चेदि । सरीर- गाथाओंका कथन अपने पूर्वमें ऐसे कथनकी मांग संठाणणामकम्मं छविहं समचउरसंठाणणामं णग्गोद- करता है जो ठीक क्रमादिकं साथ छह संहननोंके परिमंडल-सादिय-कुज्ज-वामणहड.सरीरसंठाण णामं नामोल्लेखको लिये हुए हो। ऐसा कथन मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें २८वीं गाथाके अनन्तर दिये हुए निम्न चेदि । सरीर-अंगोवंगणाम तिविहं ओरालिय-वेगुधिय. व्यय. सूत्रपरसे उपलब्ध होता है:आहारसरीर - अंगोवंगणामं चेदि ।" ___संहडण-णामं छव्विहं वज्जरिसहणारायसंहडण___ यहाँ पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि २७वीं गाथाके पूर्ववर्ती गद्यसूत्रोंमें नामकर्मकी णामं वज्जणाराय.णाराय-अद्धणाराय-खीलिय.असंपत्त. प्रकृतियोंका जो क्रम स्थापित किया गया है उसकी सेवट्टि-सरीरसंहडणणामं चेइ ।"
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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