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________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र ३११ यहाँ संहननोंके प्रथम भेदको अलग विभक्तिसे देखनेमें नहीं आते और ग्रन्थके पूर्वाऽपर सम्बन्धको रखना अपनी खास विशेषता रखता है और वह दृष्टिमें रखते हुए उसके आवश्यक अङ्ग जान पड़ते हैं, ३८वीं गाथामें प्रयुक्त हुए 'इग' 'एग' शब्दोंके अर्थको इसलिये इन्हें प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता आचार्य नेमिचन्द्रठीक व्यवस्थित करनेमें समर्थ है। की ही कृति अथवा योजना समझना चाहिये । पद्य___ इसी तरह मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें, नामकर्मकी प्रधान ग्रन्थोंमें गद्यसूत्रों अथवा कुछ गद्य भागका अन्य प्रकृतियोंक भेदाभेदको लिये हुए तथा गोत्रकर्म होना कोई अस्वाभाविक अथवा दोषकी बात भी और अन्तरायकर्मकी प्रकृतियोंको प्रदर्शित करने वाले नहीं है, दूसरे अनेक पद्य-प्रधान ग्रन्थोंमें भी पयोंके और भी गद्यसूत्र यथास्थान पाये जाते हैं, जिन्हें साथ कहीं-कहीं कुछ गद्य भाग उपलब्ध होता है; स्थल-विशेषकी सूचनादिके बिना ही मैं यहाँ, पाठकों जैसे कि तिलोयपण्णत्ती और प्राकृतपञ्चसंग्रहमें । की जानकारीके लिये, उद्धृत कर देना चाहता हूँ: ऐसा मालूम होता है कि ये गद्यसूत्र टीका-टिप्पणका अंश समझे जाकर लेखकोंकी कृपासे प्रतियोंमें छट "वएणणामं पंचविहं किएण-णील-रुहिर-पीद _ गये हैं और इसलिये इनका प्रचार नहीं हो पाया। सुक्किल-वण्णणामं चेदि । गंधणामं दुविहं सुगंध परन्तु टीकाकारोंकी आँखोंसे ये सर्वथा श्रोझल नहीं दुग्गंध-णामं चेदि । रसणामं पंचविहे तिट्ट-कडु- रहे हैं उन्होंने अपनी टीकाओंमें इन्हें ज्यों-के-त्यों न कसायंबिल-महुर-रमणामं चेइ । फासणाम अविहं । रखकर अनुवादितरूपमें रक्खा है, और यही उनकी कक्कड-मउगगुरुलहुग-रुक्ख-सणिद्ध-सीदुसुण-फास सबसे बड़ी भूल हुई है, जिससे मूलसूत्रोंका प्रचार णाम चेदि । आगुपुवीणामं चउविहं णिरय-तिर रुक गया और उनकं अभावमें ग्रन्थका यह अधिकार क्खगयि-पाओग्गाणुपुव्वीणामं माणुस-देवाय त्रुटिपूर्ण जैचने लगा । चुनाँचे कलकत्तासे जैनपाओग्गागुपुव्वीणामं चेइ । अगुरुलघुग-उवघाद सिद्धान्त-प्रकाशिनी संस्था द्वारा दो टीकाओंके साथ परघाद-उस्सास-श्रादव-उज्जोद-णामं चेदि । विहाय य- प्रकाशित इस ग्रन्थकी संस्कृत टीकामें दिणामकम्मं दुविहं पसथविहायगदिणामं अप्पसत्थविहायगदिणामं चेदि । तम-बादर- पज्जत्त-पत्तेय (क) “वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीयो।” “सादावेदणीयं सरीर-सुभ-सुभग-सुम्सर-आदेज-जसकित्ति-णिमिण चव असादावेदणीयं चेव ।” तित्थयरणामं चेदि । थावर-सुहम-अपज्जत्त-साहारणसरीर-अथिर-अमुह- दुब्भग-दुस्सर-श्रणादेज-अज -पट खं० १, ६ चू०८ मकित्तिणामं चेदि । गोदकम्मं दुविहं उच्च-णीचगोदं "वेदणीयं दुविहं सादावेदणीयमसादावेदणीय चेइ" चंइ । अंतरायं पंचविहं दाण-लाभ-भोगोपभोग -गो० क० मूडचिद्री-प्रति वीरिय-अंतरायं चेइ।" (ख) जं तं शरीरबंधणणामकम्मं तं पंचविहं मूडबिद्रीकी उक्त प्रतिमें पाये जाने वाले ये सब अोरालिय-मरीरबंधणणाम, वेउब्बिय सरीरबंधणसूत्र षट्खण्डागमके सूत्रोंपरसे थोड़ा बहुत सक्षेप णामं आहार-सरीरबंधणणामं तेजासरीरबंधणकरके बनाये गये मालूम होते हैं', अन्यत्र कहीं णाम कम्मइयसरीरबंधणणामं चेदि ।” * इस चिन्हसे पूर्ववर्ती सूत्रोंको गाथा नं०३२ के और उत्तर -षट खं०१,६ चू०१ वर्ती सूत्रोंको गाथा नं० ३३ के बादके समझना चाहिये। मरीरबंधणणामं पंचविहं ओरालिय वेगुब्विय१ तुलनाके लिये दोनोंके कुछ मूत्र उदाहरणके तौरपर श्राहार-तेज-कम्मइय-सरीरबंधणणामं चेइ ।” नीचे दिये जाते हैं: ---गो० क० मूडबिद्री-प्रति
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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