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________________ ३२० अनेकान्त [ वर्ष ८ 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका', जो संस्कृत टीकाके विषयको डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए. ने तीनों टीकाओं और खूब स्पष्ट करके बतलाने वाली है और जिसके गद्य-पद्यात्मक प्रशस्तियोंकी तुलना आदिके द्वारा, आधारपर हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठीके अनुवादों' अपने एक लेखमें बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है और का निर्माण हुआ है । इनमेंसे दूसरी केशववर्णीकी यह साफ घोषित कर दिया है कि 'संस्कृत टीका टीकाको छोड़कर, जो अभीतक अप्रकाशित है, शेष नेमिचन्द्राचार्य कृत है और उसमें जिस कनडी टीकाका तीनों टीकाएँ कलकत्तासे 'गांधी हरिभाई देवकरण गाढ अनुसरण है वह अभयसूरिके शिष्य केशववर्णीजैनग्रन्थमाला' में एक साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। की कृति है और उसकी रचना धर्मभषण भटारकके कनडी और संस्कृत दोनों टीकाओंका एक ही नाम आदेशानुसार शक सं० १२८१ (ई० सन् १३५९) में (जीवतत्त्वप्रदीपिका) होने, मूल ग्रन्थकर्ता और हुई है; जबकि संस्कृत टीका मल्लिभूपालके समयमें मंस्कृत टीकाकारका भी एक ही नाम लिखी गई है, जो कि सालुव मल्लिराय थे और (नेमिचन्द्र) होने, कर्मकाण्डकी गाथा नं० ९७२ जिनका समय शिलालेखों आदि परसे ईसाकी १६वीं के एक श्रम्पष्ट उल्लेखपरसे चामुण्डरायको शताब्दीका प्रथम चरण पाया जाता है, और इसलिये कनडी टीकाका कर्त्ताममझा जाने और संस्कृत टीकाके इस टीकाको १६वीं शताब्दीके प्रथम चरणकी 'श्रित्वा कर्णाटकी वृत्ति' पद्यके द्वितीय चरणमें 'वणि- ठहराया जा सकता है। साथ ही यह भी बतलाया श्रीकेशवैः कृतां' की जगह कुछ प्रतियोंमें 'वणि- है कि दोनों प्रशस्तियोंपरसे इस संस्कृत टीकाके श्रीकेशवैः कृतिः' पाठ उपलब्ध होने आदि कारणोंसे कर्ता वे आचार्य नेमिचन्द्र उपलब्ध होते हैं जो पिछले अनेक विद्वानोंको, जिनमें पं० टोडरमल्लजी मूलसङ्घ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्द भी शामिल हैं, संस्कृत टीकाके कतृत्व विपयमें भ्रम अन्वय और नन्दि आम्नायके आचार्य थे; ज्ञानभूषण रहा है और उसके फलस्वरूप उन्होंने उमका कर्ता भटारकके शिष्य थे जिन्हें प्रभाचन्द्र भटार 'केशववणीं' लिख दिया है। चुनाँचे कलकत्तासे सफलवादी तार्किक थे, सूरि बनाया अथवा प्राचार्यगोम्मटसारका जो संस्करण दो टीकाओं-सहित पद प्रदान किया था; कर्नाटककं जैन राजा मल्लिप्रकाशित हुआ है उसमें भी संस्कृत टीकाको "केशव- भूपालके प्रयत्नोंके फलस्वरूप जिन्होंने मुनिचन्द्रसे, वर्णीकृत" लिख दिया है। इस फैले हुए भ्रमको जोकि 'विविद्यापरमेश्वर के पदसे विभूषित थे, सिद्धान्तका अध्ययन किया था; जो लालावीक १ हिन्दी अनुवाद जीवकाण्डपर पं० खूबचन्दका, कर्म आग्रहसे गौरदेशसे आकर चिकट में जिनदाम काण्डपर पं० मनोहरलालका; अंग्रेजी अनुवाद जीव- शाह-द्वारा निर्मापित पार्श्वनाथ मन्दिरमें ठहरे थे काण्डपर मिस्टर जे. एल. जेनीका; कमकाण्डपर और जिन्होंने धर्मचन्द अभयचन्द्र तथा अन्य ब्र० शीतलप्रसाद तथा बाबू अजितप्रसादका; और सजनोंके हितके लिये खण्डेलवालवंशके साहस मराठी अनुवाद गांधी नेमचन्द बालचन्दका है। और साह सहेसकी प्रार्थनापर यह संस्कत टीका. २ यह पाठ ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन कर्णाटकवृत्तिका अनुसरण करते हुए, त्रैविद्यविद्याबम्बईकी जीवतत्वप्रदीपिका सहित गोम्मटमारकी एक विशालकीर्तिकी सहायतासे लिखी थी। और इस हस्तलिखित प्रतिपरसे उपलब्ध होता है (रिपोर्ट १ वीर टीकाकी प्रथम प्रति अभयचन्द्रन, जोकि निर्ग्रन्थाचार्य सं० २४४६, पृ० १०४.६) और विद्यचक्रवर्ती कहलाते थे, संशोधन करके ३५० टोडरमल्लजीने लिखा है तय्यार की थी। दोनों प्रशस्तियोंकी मौलिक बातोंमें केशववी भव्य विचार कगाटक टोका-अनुमार । कोई खाम भेद नहीं है, उल्लेखनीय भेद इतना ही है संस्कृत टीका कीनी बहु जो अशुद्ध मो शुद्ध करेहु । १ अनेकान्त वर्ष ४ कि० १ पृ० ११३.१२० ।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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