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________________ किरण ८-९] गोम्मटसार और नेमिचन्द्र ३१९ जिनकी उपस्थितिसे व्यर्थकी पुनरावृत्ति होती है- उपकार-स्मरणको स्थिर रखनेकी । क्योंकि इस ग्रन्थका स्थान न दिया जाता, जो कि सिद्धान्तचक्रवर्ती-जैसे अधिकांश शरीर आद्यन्तभागों सहित, उन्हींके योग्य ग्रन्थकारकी कृतिमें बहुत खटकती हैं, और न गोम्मटसार परसे बना है-इसमें गोम्मटसारकी उन ३५ (नं०५२ से ८६ तककी) सङ्गत गाथाओंको १०२ गाथाएँ तो ज्यों-की-त्यों उद्धृत हैं और २८ निकाला ही जाता जो उक्त अधिकारमें पहलेसे गाथाएँ उसीके गद्यसूत्रों परसे निर्मित हुई जान पड़ती मौजूद थीं और अबतक चली आती हैं और जिन्हें हैं। शेष ३० गाथाओंमेंसे १६ दूसरे कई ग्रन्थोंकी कर्मप्रकृतिमें नहीं रक्खा गया । साथ ही, अपनी ऊपर सूचित की जाचुकी हैं और १४ ऐसी हैं जिनके १२१वीं अथवा कर्मकाण्डकी 'गदिजादीउस्सासं' ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला-वे धवलादि नामक ५१वीं गाथाके अनन्तर ही 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ग्रन्थोंके षटमंहननोंके लक्षण-जैसे वाक्योंपरसे अधिकारकी समाप्तिको घोषित न किया जाता । खुदकी निर्मित भी हो सकती हैं। और यदि कर्मकाण्डसे पहले उन्हीं आचार्य महोदयने हाँ, ऐसी सन्दिग्ध अवस्थामें यह हो सकता है कि कर्मप्रकृतिकी रचना की होती तो उन्हें अपनी उन प्राकृत मूल-सूत्रोंके नीचे उनके अनुरूप इन सूत्रापूर्व-निर्मित २८ गाथाओंके स्थानपर सूत्रोंको नव- नुसारिणी २८ गाथाओंको भी यथास्थान ब्रैकट [] निर्माण करके रखनेकी जरूरत न होती-खासकर के भीतर रख दिया जावे, जिससे पद्य-प्रेमियोंको उस हालतमें जबकि उनका कर्मकाण्ड भी पद्यात्मक पद्य-क्रमसे ही उनके विषयके अध्ययन तथा कण्ठस्थादि था। और इसलिये मेरी रायमें यह 'कर्मप्रकृति' या करने में सहायता मिल सके । और यह गाथाओंके तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक संस्कृत छायात्मक रूपकी तरह गद्य-सूत्रोंका पद्यात्मक अथवा विद्वानकी कृति है जिनके साथ नाम-साम्यादि- रूप कहलाएगा, जिसके साथ रहनेमें कोई बाधा के कारण सिद्धान्तचक्रवर्ती का पद बादको कहीं-कहीं प्रतीत नहीं होती-मूल ज्यों-का-त्यों अक्षुण्ण बना जुड़ गया है-सब प्रतियों में वह नहीं पाया जाता'। रहता है । आशा है विद्वज्जन इसपर विचार कर और या किसी दूसरे विद्वानने उसका सङ्कलन कर समुचित मार्गको अङ्गीकार करेंगे। उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाड़ित किया है, और ऐसा करनेमें उसकी दो दृष्टि हो सकती हैं-एक तो ग्रन्थकी टीकाएँ प्रन्थ-प्रचारकी और दूसरी नेमिचन्द्रकं श्रेयकी तथा इस गोम्मटसार ग्रन्थपर मुख्यतः चार टीकाएँ १ भट्टारक ज्ञानभपणने अपनी टीकामें कर्मकाण्ड अपर उपलब्ध हैं-एक, अभयचन्द्राचार्यकी संस्कृत टीका नाम कर्मप्रकृतिको 'सिद्धान्तज्ञानचक्रवर्ति-श्रीनेमिचन्द्र- 'मन्दप्रबोधिका', जो जीवकाण्डकी गाथा नं० ३८३ विरचित' लिखा है । इसमें 'सिद्धान्त' और 'चक्रवर्ति के तक ही पाई जाती है, ग्रन्थके शेष भागपर वह बनी मध्यमें 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग अपनी कुछ खास विशेषता या कि नहीं, इसका कोई ठीक निश्चय नहीं। दूसरी, रखता हुअा मालूम होता है और उसके संयोगसे इस केशववर्णीकी संस्कृत-मिश्रित कनडी टीका 'जीवतत्त्वविशेषण-पदकी वह स्पिरिट नहीं रहती जो मतिचक्रसे प्रदीपिका', जो ग्रन्थके दोनों काण्डोंपर अच्छे पटखण्डम्प अागम-सिद्धान्तकी साधना कर सिद्धान्त- विस्तारको लिये हुए है और जिसमें मन्दप्रबोधिका चक्रवर्ती बननेकी बतलाई गई है (क० ३६७); बल्कि का पूरा अनुसरण किया है। तीसरी, नेमिचन्द्राचार्यसिद्धान्त-ज्ञान के प्रचारकी स्पिरिट सामने आती है । और को संस्कृत टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका', जो पिछली इसलिये इसका संग्रहकर्ता प्रचारकी स्पिरिटको लिये हुए दोनों टीकाओंका गाढ अनुसरण करती हुई ग्रन्थके कोई दूसरा ही होना चाहिये, ऐसा इस प्रयोग परसे दोनों काण्डोंपर यथेष्ट विस्तारके साथ लिखी गई है। ख़याल उत्पन्न होता है। और चौथी, पं० टोडरमल्लजीकी हिन्दी टीका
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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