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________________ ३१८ अनेकान्त [ वर्ष ८ कर्मकाण्डका कोई आवश्यक अङ्ग नहीं है-उसे इस प्रकार त्रुटित कही जाने वाली ये ७५ गाथाएँ व्याख्यान-गाथा कह सकते हैं । मूल-सूत्रोंमें भी हैं, जिनमेंसे ऊपरके विवेचनानुसार मूल सूत्रोंसे उसके विषयका कोई सूत्र नहीं है। यह पञ्चसंग्रहके सम्बन्ध रखने वाली मात्र २८ गाथाएँ ही ऐसी हैं द्वितीय अधिकारकी गाथा है और संभवतः वहींसे जिनका विषय प्रस्तुत कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें मंग्रह की गई है। त्रुटित है और उस त्रुटित विपयकी दृष्टिसे जिन्हें त्रुटित कहा जा सकता है, शेष ४७ गाथाओं से (१२) कर्मकाण्डकी 'मणवयणकायवक्को' नामकी कुछ असङ्गत हैं, कुछ अनावश्यक हैं और कुछ ८०८वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में 'दंसण- लक्षण-निर्देशादिरूप विशेष कयनको लिये हए हैं, विसुद्धिविणयं, सत्तीदो चागतवा, पवयणपरमाभत्ती, जिसके कारण वे त्रुटित नहीं कही जा सकतीं । अब एदेहिं पसत्थेहिं, तित्थयरसत्तकम्म' ये पाँच गाथाएँ प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उक्त २८ गाथाओंको, पाई जाती हैं, जिन्हें भी कर्मकाण्डमें त्रुटित बतलाया जिनका विषय त्रुटित है, उक्त अधिकारमें यथास्थान जाता है । इनमेंसे प्रथम चार गाथाओं में दर्शनविशुद्धि प्रविष्ट एवं स्थापित करके उसको त्रुटि-पूर्ति और आदि षोडश भावनाओंको तीर्थट्टर नामकर्मके गाथा-संख्यामें वृद्धि की जाय ? इसके उत्तरमें मैं बन्धकी कारण बतलाया है और पांचवीमें यह इतना ही कहना चाहता है कि, जब गोम्मटसारकी सूचित किया है कि तीर्थकर नामकर्मकी प्रकृतिका प्राचीनतम ताडपत्रीय प्रतिमें मृल-सूत्र उपलब्ध हैं जिसके बन्ध होता है वह तीन भवमें सिद्धि और उनकी उपस्थितिमें उन स्थानों पर टित अंश(मुक्ति) को प्राप्त होता है और जो क्षायिक सम्यक्त्व की कोई कल्पना उत्पन्न नहीं होती-सब कुछ सङ्गत से युक्त होता है वह अधिक-से-अधिक चौथे भवमें हो जाता है-तब उन्हें ही ग्रंथकी दूसरी प्रतियोंमें जरूर मक्त हो जाता है। यह सब विशेष कथन है और भी स्थापित करना चाहिये। उन सूत्रोंके स्थान पर विशेष कथनके करने-न-करनेका हरएक ग्रन्थकारको इन गाथाओंको तभी स्थापित किया जा सकता है अधिकार है । ग्रंथकार महोदयने यहाँ छठे अधिकारमें जब यह निश्चित और निर्णीत हो कि स्वयं ग्रन्थकार सामान्य-रूपसे शुभ और अशुभ नामकर्मके बन्धके नेमिचन्द्राचार्यने ही उन सूत्रोंके स्थान पर बादको कारणोंको बतला दिया है नामकर्मकी प्रत्येक प्रकृति इन गाथाओंकी रचना एवं स्थापना की है; परन्तु अथवा कुछ खास प्रकृतियोंके बन्ध-कारणोंको बतलाना इस विषयके निणयका अभी तक कोई समुचित उन्हें उसी तरह इष्ट नहीं था जिस तरह कि ज्ञाना- साधन नहीं है। वरण, दर्शनावरण और अन्तराय जैसे कोंकी कर्मप्रकृतिको उन्हीं सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य अलग-अलग प्रकृतियोंके बंध-कारणोंको बतलाना नेमिचन्द्रकी कृति कहा जाता है; परन्तु उसके उन्हींउन्हें इष्ट नहीं था, क्योंकि वेदनीय, आयु और की कृति होनेमें अभी सन्देह है। जहाँ तक मैंने इस गोत्र नामके जिन कोंकी अलग-अलग प्रकृतियोंके विषय पर विचार किया है मुझे वह उन्हीं प्राचार्य बन्ध-कारणोंको बतलाना उन्हें इष्ट था उनको उन्होंने नेमिचन्द्रकी कृति मालूम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने बतलाया है। ऐसी हालतमें उक्त विशेष-कथन-वाली यदि गोम्मटसार-कर्मकाण्डके बाद उसके प्रथम गाथाओंको त्रुटित नहीं कहा जा सकता और न अधिकारको विस्तार देनेकी दृष्टिसे उसकी रचना की उनकी अनुपस्थितिसे ग्रंथको अधूरा या लडूं रा ही होती तो वह कृति और भी अधिक सुव्यवस्थित घोषित किया जा सकता है। उनके अभावमें ग्रंथकी होती, उसमें असङ्गत तथा अनावश्यक गाथाओंको कथन-सङ्गतिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता और न किसी -खासकर ऐसी गाथाओंको जिनसे पूर्वापरकी प्रकारकी बाधा ही उपस्थित होती है। गाथाएँ व्यर्थ पड़ती हैं अथवा अगले अधिकारों में
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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