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________________ प्रो० दलसुखजी मालवणियाका पत्र [ 'अनेकान्त' वर्ष किरण २ में जो 'जैनसंस्कृति-संशोधन-मण्डल' पर अभिप्राय प्रकट किया था, उसके सम्बन्धमें कुछ स्पष्टीकरण को लेकर उक्त संशोधन-मण्डलकी सम्पादकसमिति के मंत्री प्रो० दलसुखजी मालवणिया, बनारसका एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसे उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकाशित करने की प्रेरणा की है। अत: उसे हम यहाँ ज्योंका त्यों दे रहे हैं -दरबारीलाल जैन, कोठिया। आपने भनेकान्तके फरवरी १९४६ के अंकमें जैन- को लिखा गया था। किसी कारणवश उनकी स्वीकृति संस्कृति-संशोधन-मंडल का परिचय दिया एतदर्थ धन्यवाद। अभी तक मिली नहीं अतएव उनका नाम छापा नहीं है। आपने सम्पादकसमितिके विषयमें अपना जो सुझाव स्वीकृति पानेपर उनका नाम सम्पादक-समितिमें सम्मिलित रखा है उसके विषयमें थोदा स्पष्टीकरण श्रावश्यक है। हो जायगा। इस प्रकार मात सदस्य हो जानेपर उस मंडलका ध्येय असांप्रदायिक कार्य करनेका है किन्तु मंडल समितिमें अन्य नामकी गंजाइश नहीं। ने अपने बंधारण में ऐसा कोई नियम नहीं रखा है जिससे रहा यह कि सभी संप्रदायके लोग संपादक समितिमें यह आवश्यक हो जाय कि मंडलकी उपममितियोंमें तीनों न होंगे तो लोग मंडल के कार्यको शंकाको दृष्टिम देखेंगे, सम्प्रदायके व्यक्ति अवश्य हों। मंडल की कार्यकारिणी यह जो आपकी शंका है उसका उत्तर न हम दे सकते हैं जिस व्यक्तिको अपने किसी खास कार्य में सहायक हो सके न कोई दे सकता है। हमारा कार्य यदि समाजको पसंद ऐसी ममजती है उसे वह अपनी उपसमितियोंमें स्थान पायगा तो वह उसे मंजूर करेगा। सभीके नाम करके भी देती है । इसका मतलब यह कदापि नहीं कि जो सजन यह दावा नहीं किया जा सकता कि जो भी कार्य होगा वह उपसमितिमें नहीं वे मंडलकी रष्टिमें विद्वान नहीं या समूचे समाजको ग्राह्य होगा ही। समाजको इतनी दृष्टि असांप्रदायिक भी नहीं। किसी भी एक उपसमितिमें होती तो फिर इतने झगडे होते ही क्यों? समाजके सभी विद्वानोंका समावेश तो असंभव है। मंडल मण्डल के कार्यमें न सिर्फ जैन ही अपितु जैनेतरका के नियमानुसार सात सदस्यों की सम्पादकममिति है। उन भी महकार है। मंडल समाजकी उपासना करने नहीं सदस्योंका चुनाव मंडल अपने सुभीतेकी दृष्टिसे, कार्यकी चला है वह तो सत्यकी उपासना करना चाहता। समाज सरलताकीसे दृष्टि करता।चनावके समय यह स्वाभाविक तो अपने पाप उसमें तथ्य देखेगी तो अपना सहकार है कि मंडल के अन्तरंग लोग ही उसमें प्रधान रहे जिसमे देगी यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि हम जो कार्यवेग और एकरूपता बनी रहे। चनावके समय किसीके कुछ कहेंगे वह सत्य ही होगा। अपना प्रयत्न सत्यको उपरका उनके सम्प्रदायका लेबल नहीं, किन्तु मण्डलको पानेका है, इतना ही कहा जा सकता है। वह व्यक्ति अपनी दृष्टिमे कितना उपयोगी होगा-यह देख श्राशा उपयुक्त स्पष्टीकरण आप भनेकान्त के अगले कर ही पसंदगी की जाय यह स्वाभाविक है।हमी दृष्टिसे अंक में छापेंगे। माजसे चार महीने पहले प्रो. उपाध्येका नाम सम्पादक भवदीयसमितिमें सम्मिलित करनेका प्रस्ताव पास हुना था। उन दलसुख (मंत्री सम्पादकसमिति) आवश्यक सूचना सेठ शान्तिप्रसाद जैनको एक ऐसे सहकारी, असिस्टेंटकी आवश्यकता है जो भाचार्य ग शास्त्री इंगलिशके ग्रेजुएट हों, हिन्दी और अंग्रेजीके अच्छे लेखक तथा व्यापक साहित्यिक रुचिके हों, वेतन योग्यतानुसार, आवेदनपत्र डालमियानगर, बिहार के पते पर शीघ्र भेजना चाहिए। लक्ष्मीचंद जैन, एम० ए०
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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