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________________ २४४ अनेकान्त [वर्ष ८ बोया गया । यहाँकी भौगोलिक, प्राकृतिक तथा मानसिक धर्मने तो यही प्रतिपादित किया है कि दुष्ट के साथ हमें नीच परिस्थिति इसीके अनुकूल थी। इस विचारधाराके लिए नहीं होना चाहिए किन्तु क्रोधको शान्तिसे, वैर भावको प्रेम यहाँका उ.लवायु बहुत अच्छा सिद्ध हुा । इस वृक्षको __ तथा दयाभावगे और दुधको साधुतासे जीतना ही श्रेष्ठ है। फलते फूलने देखकर दूसरे देशों में भी यह बीज बोया गया, धर्मकी रूदियों और बाह्य लक्षणको समयानुकूल बदलना किन्तु दूरी जगह वितु वातावर। के न मिलने से पिशाल- पाप नहीं है। धर्म के नामार श्राडबर, ज्ञान, ६. ग्याचारका काप वृत्त नहीं होसका। मानसशास्त्रियों Psychologist: प्रदर्शन करना पार है। धर्मके मुजदूत सिद्धान्त कभी नहीं तथा समाजविज्ञान (Social Science के पण्डितोंका बदलते। चोग शीर भूट सदा पार ही समझे जावेंगे। कथन है कि बाह्य और भ्यंतर परिस्थितियोंका भाव दुनियाके कोने २ से इसके विरुद्ध ही श्रावाज उठेती। विचार-निर्माणपर पड़ता है। यही कारण है कि श्रा-यामिक लौकिक स्वार्थ-पाथन या श्रामाका विकारी रूप ही नरकका विचा थरा यहीं पर बढ़ी, उसका विकास यहींके शान्त द्वार कहलाया जासकता है। मानवताका पुजारी जब पतित वातावरण में हुश्रा। न तो यहाँ पहिले रोटीका सवाल ही हो जाता है तो वह गित समझा जाता। इसीको था और न दृसरे अडंगे । फलत: इस धन-धान्य परिपूर्ण अमाचरण का फल कहा जायेगा। अकर्मण्यता और वैराग्यमें भूमिपर बड़े बड़े प्राचार्मोन साहित्य और ज्ञान की ऐसी बहुत बड़ा अन्तर है। उत्तरदायित्व बरना धर्स नहीं, लंघन उपासना की कि अध्यात्मकी देवी प्रसन्न होगई। यहाँके और फाकाकशीको तपस्था नहीं कहा गया है किन्तु लौकिक नयनाभिराम स्वर्गोपस प्राकृतिक सौन्दर्य, शीतल तथा शान्त धर्मको साधन करता हश्रा पुस्पार्थी जीव ने विशेष और वातावरण, मनोहर दृश्यों और ज्ञान-पिपासा श्रादिने स्वाभाविक आदर्श की तरफ बढ़ता है। वह जानता है श्राध्यात्मवादकी मुथियों को सुलझा दिया । अव्या मवाद कि "पर्व परवशं दुःखं सर्व प्रामवशं मुखम्"। धर्मको भूल भारतवर्षी सारे विश्वको अनुपम देन है। इनकी कदर जानेसे मनन्य अपनी मनुप्यता को खो देता है तथा बदनामी वही कर साता है जिसने यह मज़ा चग्या है। सारे का जीवन गुज़ारकर काल के गालमें चला जाता है। इसीलिये विश्वकी बीमारीमा यी इलाज है । ग़ालिब सा.ब भी तो किपीने कहा है के जगत में आकर हमें मानवताका सना यही फरमाते हैं: देना चाहिए तथा पथ-भ्रष्ट न होना चाहिए। कर्तव्यका ही "कये तबियतने जीस्ता मना पाया । दूसरा नाम धर्म है - दशी वा पाई दई ये-दवा पाला।" "जो तू शाया जातमें जगत सराहे तोय । नशास्त्रों का निचोड़ भी यही अध्यावाद है, किन्नु ऐसी कानी कर चलो जो पाछे हँसी न हो" || खयान रहे कि या निष्क्रिय नहीं है इसके लिए पुकमार्थको धर्म दो कार का है । एकको मोक्ष धर्म या निवधर्म अपनाना पड़ता है। कहते हैं तो यरको .वहारधर्म याश्रावकधर्म कर सकते हैं। "अमल हिन्दगी बनधी, जन्नत भी, अमन भी” पहले धर्मका श्रादर्श विशिष्ट ये या स्वाभाविक पदकी पति पारलौविद जातका आधार या निश्चय धर्मका श्राधार है। दूसरेका श्राश: किने संसारमें कानाचाहिए व्यवहार धर्म है। व्यवहार धर्म परिलो सीदी है। इसी रपे वहम वय कर सकते हैं। समाजमें हमारा स्थान क्या है? गुजरते हुए, ऊपरकी मंजिलपर पहुंचा जा सका है। व हमें हमारे उत्तर यित्व को किस तरह निभाना चाहिए। अध्या मवाद बारी का नतीजा नहीं, बल्कि पुरुषार्थ धर्मके दस चिना बताये गये हैं ....क्षमा, मार्दव, प्रार्जय, नतीजा है, मनुष्यमात्रकी चरो तग उनाते है। सत्य, शौच, संयम, तप. त्याग प्राचिन्म और ब्रह्मचर्य । वास्तवमें रूढियों के प्रावल ने धर्म के असली रूको येही चीजें मानवताकी द्योतक हैं। इनसे जब यह मानव च्युत छिपा दिया है। अबतो केवल प्रामारहित अस्थपंजर या होजाता है या अपने स्वभावको भूल जाता है तो व, न सिर्फ कलेवरका भीषण दृश् ही दिखाई देता है। इसी रूपको देख अपनी अधोगतिके अभिमुख होता है बल्कि सामाजिक कर पाश्चिमात्य लोग धर्मको अभावहारिक समझने लगे हैं। जीवनमें भी बाधा डालता है। ए.ई. मैण्डर A. E.
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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