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________________ ३६६ अनेकान्त [ वर्ष ८ व्यवस्थाका व्यवहार संभव नहीं हो सकता, तब ?) यह सब विकल्प-बुद्धि है (जो अनादि-वासनासे समुद्भूत होकर मातृघाती आदि तथा शास्ता-शिष्यादिरूप विधि-व्यवस्थाकी हेतु बनी हुई है) और विकल्प-बुद्धि सारी मिथ्या होती है, ऐसा कहने वालों (बौद्धों) के यहाँ, जो (स्वयं) अतत्त्व-तत्त्वादिके विकल्प-मोहमें डूबे हुए हैं, निर्विकल्प-बुद्धि बनती कौनसी है ?-कोई भी सार्थिका और सच्ची निर्विकल्पबुद्धि नहीं बनती; क्योंकि मातृघाती आदि सब विकल्प अतत्त्वरूप हैं और उनसे जो कुछ अन्य हैं वे तत्त्वरूप हैं यह व्यवस्थिति भी विकल्पवासनाके बलपर ही उत्पन्न होती है। इसी तरह 'संवृति' (व्यवहार) से 'अतत्व' की और परमार्थसे 'तत्त्व' की व्यवस्था भी विकल्प-शिल्पीके द्वारा ही घटित की जा सकती है-वस्तुबलसे नहीं। इस प्रकार विकल्प-मोह बौद्धोंके लिये महासमद्रकी तरह दुष्पार ठहरता है। इसपर यदि यह कहा जाय कि बुद्धोंकी धर्म-देशना ही दो सत्योंको लेकर हुई है-एक 'लोकमंवृति सत्य' और दूसरा ‘परमार्थ सत्य' तो यह विभाग भी विकल्पमात्र होनेसे तात्त्विक नहीं बनता। संपूर्ण विकल्पोंसे रहित स्वलक्षणमात्र-विषया बुद्धिको जो तात्त्विकी कहा जाता है वह भी संभव नहीं हो सकती; क्योंकि उसके इन्द्रियप्रत्यक्ष-लक्षणा, मानसप्रत्यक्ष-लक्षणा, म्वसंवेदनप्रत्यक्ष-लक्षणा और योगिप्रत्यक्षलक्षणा ऐसे चार भेद माने गये हैं, जिनकी परमार्थसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । प्रत्यक्ष-मामान्य और प्रत्यक्ष-विशेषका लक्षण भी विकल्पमात्र होनेसे अवास्तविक ठहरता है। और अवास्तविक लक्षण वस्तुभूत लक्ष्यको लक्षित करनेके लिये समर्थ नहीं है। क्योंकि इससे 'अतिप्रसङ्ग' दीप आता है। तब किसको किससे लक्षित किया जायगा ? किसीको भी किमी लक्षित नहीं किया जा सकता। अनर्थिका साधन-साध्य-धीश्चेद्विज्ञानमात्रस्य न हेतु-सिद्धिः । अथाऽर्थवत्वं व्यभिचार-दोषो न योगि-गम्यं परवादि-सिद्धम् ॥१८॥ '(यदि यह कहा जाय कि ऐसी कोई बुद्धि नहीं है जो बाह्य स्वलक्षणके आलम्बनमें कल्पनासे रहित हो; क्योंकि स्वप्नबुद्धिकी तरह समस्त बुद्धिसमूहके आलम्बनमें भ्रान्तपना हान कल्पना करनी पड़ती है, अतः अपने अंशमात्ररूप तक सीमित-विपय होनेसे विज्ञानमात्र तत्त्वकी ही प्रसिद्धि होती है उसीको मानना चाहिये । इसपर यह प्रश्न पैदा होता है कि विज्ञानमात्रकी सिद्धि ससाधना है या निःसाधना ? यदि ससाधना है तो साध्य-साधनकी बुद्धि सिद्ध हुई, विज्ञान-मात्रता न रही। और यदि सांध्य-साधनकी बुद्धिका नाम ही विज्ञान-मात्रता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता है कि वह बुद्धि अनथिंका है या अर्थवती ?) यदि साध्य-साधनको बुद्धि अनर्थिका है-उसका कोई अर्थ नहीं तो विज्ञानमात्र तत्त्वको सिद्ध करनेके लिये जो (प्रतिभासमानत्व) हेतु दिया जाता है उसकी (म्वप्नापलम्भ-साधनकी तरह) सिद्धि नहीं बनती और जब हेतु ही सिद्ध नहीं तब उससे (असिद्ध-साधनसे) विज्ञप्तिमात्ररूप साध्यकी सिद्धि भी नहीं बन सकती। __ यदि साध्य-साधनकी बुद्धि अर्थवती है-अर्थालम्बनको लिये हुए है तो इसीसं प्रस्तुत हतुके 'व्यभिचार' दोष आता है-'सर्वज्ञान निरालम्बन है ज्ञान होनेसे' ऐसा दूसरोंके प्रति कहना तब युक्त नहीं ठहरता, वह महान् दोष है, जिसका निवारण नहीं किया जासकता; क्योंकि जैसे यह अनुमान-ज्ञान स्वसाध्यरूप आलम्बनके साथ सालम्बन है वैसे विवादापन्न (विज्ञानमात्र) ज्ञान भी सालम्बन क्यों नहीं? ऐसा संशय उत्पन्न होता है। जब भी सर्ववस्तुममूहको प्रतिभासमानत्व-हेतुसे विज्ञानमात्र सिद्ध किया जाता है तब भी यह अनुमान -परार्थप्रतिभासमान होते हुए भी वचनात्मक है-विज्ञानमात्रसे अन्य होने के कारण विज्ञानमात्र नहीं है-अत: प्रकृत हेतुके व्यभिचार-दोप सुघटित एवं अनिवार्य ही है। १ "टू सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्म-देशना । लोकसंवृति-सत्यं च सत्यं च परमार्थतः ।।"
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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