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भगवान महावीर और उनका सन्देश (बम्बक-श्री कस्तूरसावजी जैन अप्रवाल ,बी. ए., बी. टी.)
[किरण १ स भागे]
पाठक अबतक धर्म और अहिंयांको जिस रूपमें दख विविध वैज्ञानिक प्राविकारोंसे हम प्रतिक्षण अनेकविध चुके हैं उसका प्राधार अनुभूनि (Feeling) ही प्रधान लाभ भी उठा रहे हैं, वैज्ञानिकोन प्रकृनिद को एकनिष्ठा रूपये रही है। अब हम निम्न पंत्रियों से बौद्धिकता और लगन संवा नया तपस्यामे प्रसन्न करम अपनी (Rationality) की कसौटीपर परम्बनका :यान रंगे अज्ञाकारिंगी चेरी बना लिया है. और अभी मानव समाजकी तथा पाश्रिमान्य विचारधाग कि.म तरह बहती है, उसकी प्राशापूर्ण क्रियाशीलना भी अनन्त है। मानवजातिकी लच्यमं रखकर इसके व्यावहारिक स्वरूपका परीक्षण करेंगे। वैज्ञानिक धनराशिकी मीमा कल्पना भी परिमित नहीं
प्रायः त्वांग पन म नया पारलौकिक मखमं विश्वास हानीयीके इनपर मुम्बके परमोच शिवरपर मनुष्य नहीं करते बल्कि उस कपोलकल्पित तथा धं,म्बकी टट्टी भासीन हो सकता है। अतएव निराशावा. यो तथा निष्क्रिय समझते हैं । अत्यादी मनुष्य जीवनका लक्ष्य प्राधिभौतिक पुरुषोंका ही काल्पनिक मुग्म भविष्यकालीन मांग की उमति, प्राधिक उकर्ष तथा काम-संबन ही समजते हैं। सर्वथा त्याज्य तथा हेय है ऐसा उनका काना है। उनके नजदीक शरीरये 'श्यक प्रामा कोई वस्तु नहीं है श्रमन्तोष अवनतिका कारण नहीं, किम्बहुना उमरिकी किन्तु इन्द्रियजनित सुवाका भंग करना ही परम श्रेयस्कर पहली सीढी है । जबतक असंतोषसे मनुष्य जर्जर नहीं होता, है। उनका कना है कि 'ईश्वर और धर्म केवल टोंग हैं। हमारे मनमें अपनी दशा सुधारनेका विचार भी नहीं पुरातन काल में खुदगरज़ नया स्वार्थी किन्तु बुद्धिप्रधान पैदा होता । संतापीका सुम्ब प्रायः उमनिका घातक होना है पुरुषोंने केवल स्वार्थक लिये तथा अपने जीवनको सुखमय तथा उत्कर्षकी गनि सटाके लिये की रहनी है। मनप्य बनाने के लिये जगतके भाले प्राणियोंको उगकर अपना उल्न निर्जीव तथा अकर्मण्य बन जाता है तथा गुलामी और मीधा करना अपना पैदायशी हक समझ लिया था। दासबका वः शिकार हो जाना है। प्रत: अमन्नाप या
बेवकूफीका माल अलमन्दोंकी खुराक है" इस सिद्धान्तको हलचल जावन पैदा करती है। वह हर प्रकारके माधनांका दुनिया पहले ही से अपना चुकी है। भी हो, उनके अवलंबन लेकर न सिर्फ अपने प्राःको किंबहुना मम ननदीक धर्म एक ढकोसला है, एक जाल है, अकर्मण्यता राष्ट्रको कहीं कहीं पहुंचा देती है। साधन चाहे कैसा ही तथा अन्धपरम्परा है। भविष्यकालीन काल्पनिक सम्खोंकी हो वह अपने उत्तम व्यरको प्राप्ति कर लेता है। दिमा नानमाके लिये वर्तमानकालको बलिवेदीपर चढ़ाना गर्हगीय अथवा बला योगये शान्ति स्थापित की जा सकती है। है। वास्तवमें विचारशील लोगोंके चित्तमं मानवजातिकी अतएव प्रभुता ही जीवनका लक्ष्य होना चाहिए । जब पश्रिममें उत्तरोत्तर उन्नति हो रही है-यह ऐतिहासिक हमारी नीयत अच्छी है ना मार्ग कैमा ही कण्टकाकीण साय है। उसी प्रकार पूर्वमें अधःपतन हो रहा है यह भी क्यों न हो, हिम्मत न हारनी चाहिए। यदि बुर साधनाम निर्विवाद है (इसका कारण धर्म समझा जाता है) प्रकृतिपर उद्दिष्ट की सिद्धि हो सकती है तो इसमें हर्ज ही क्या ? मनुष्यका अधिकार होता जा रहा है। इसके गूढ रहस्य यही कारण है कि "All is well tha ends मिलने आज मनुष्यको ज्ञात हैं और उनका जितना सदुपयोग well" की दुहाई दी जाती है। हमें ग्राम खानसे मतलब अपने जीवन में यह कर रहा है-प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है। है पेट गिननसे नहीं। अतएव पाश्चिमात्य विचारधाराके