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________________ २३८ अनेकान्त [वर्ष ८ प्रमुसार शान्तिका पाठ पढ़ाना तथा संतोपका केसुरा राग करना सीखा है, अपनी प्रामाकी महानताको भी धनकी आलापना एक अक्षम्य अपराध नथा महापाप है, काय ताकी तराजू पर तोलन चाहा है। इन दृषित विचारोंकी हवा निशानी है तथा वुद्धपनकी अलामत है। हमारे दिल और दिमागोंको विषल) और गन्दा बनाती ___ हमारे सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्किगत जीवनमें जा रही है। स्व० गुरुदेव रवीन्द्रनाथजीने विश्व-कल्याण का धर्म और ईश्वरवाद यदी बधा डालता है। इसीकी प्राइमें एक सस्ता और अच्छा नुसन्वा दनिया दालोंको दिया है। अन्धविश्वासका अन्धेरा हमको अाच्छादित किये हुए है। हिंसा अन्धी दुनियाको प्रेम और अहिंसाका प्रमृतमय इसके नामपर करोडों मर मिटे हैं-- खूनकी नदियां बह चुकी : संगीत सुनाया है। इनके रोचक शब्दोंमें इस मर्जका इलाज हैं। थर्मामा दुखी और अधर्मामा मुखी दिखलाई देते हैं या चतुराई (Polit cs) और तं. नहीं-किन्तु प्रेम, श्रद्ध! दूसरे शब्दों में दु:यांका तथा हमारी मौजूदा अधोगनिका और त्याग है। अग्नि अग्निका शमन नहीं कर सकती, कारण धर्म ही है। उसी प्रकार पाप पापका शमन नहीं कर सकता। शन्तिकी विचारशील लोगों के चित्त में प्रश्नोंकी उपरोत्र तरंगें अवश्य शक्रिका विकास ही उन्नतिका सहायक होगा। स्वनामधन्य उठा करती है, मानव जातिका उत्कर्ष और सर्वोच्च ध्येय विश्वविख्यात स्व. गुरुदेवजीका मत है कि पश्चिमी सभ्यताने क्या होना चाहिये यह प्रश्न जटिल होनेपर भी बदा रोचक श्राज मनुप्यकी श्रात्माको वासनाओंकी पंखलायोंमे बद्ध गंभीर और महत्वशाली है, उहेश्य और ध्येयके मूलभूत करके बोर अवनति के कारागारमें बन्द कर दिया है। तन्बोंग्ये इसका सम्बन्ध है, समस्त सिद्धान्नों और दर्शनीका मानवताके सच्चे विकासके लिए उनके शब्दोंका सार यहाँ यही सार है। सारा संसार युगके श्रादिमे शान्ति और दिया जाता है:मखकी खोज में रत रहा है। यही कारण है कि ज्ञान और "मनुष्यजानिकी वर्तमान सन्तानमें श्राधी मनुष्यता अनुभवकी मात्रा उत्तरोत्तर बदती गई। ज्ञानराशिकी ऐसी और श्राधी पशुता एवं बर्बरता पाई जाती है । इसका श्रीवधिको देखते हुए उपरोक प्रश्नोंका हल प्रामानीसे यदि मौजदा भयानक रूप पूर्व ऐतिहासिक युगके (Preनहीं तो काफी गवेषण व अन्वेषण के उपरान्त निकाला जा Historic Tericd) दानवोंकी अपेक्षा अधिक सत्तार सकता है। वर्तमानके नये प्राविकार और खोज ज्ञानके जनक और फलन: आपत्तिजनक है। उन दानधान केवल सदपयोगमें बाधा डालने के लिए हमारी बुद्धिको म्रममें डाल पशु बल था, किन्तु अब मनुष्यसन्तान में पशुबल तथा रहे हैं। यही कारण है कि धर्मके साथ २ मुख श्री शान्ति विनाशकारी वुद्विवलका सम्मिलन है । इसने ऐसी बीभत्रू त . दनियामे विदा होती जा रही है, अंधकारमय अधर्मरूपी को जन्म दिया है. जिसकी वासनामें हृदयका प्रभाव और अशान्तिका साम्राज्य होता जा रहा है । प्रास्तिकतापर अस्त्र-शस्त्रको छल-कपट-पूर्ण बना दिया है, इसने अन्धी नास्तिकताकी विजय गौरवकी चीज समझी जा रही है। वासनाको श त्रिशाली और कार्यक्षम बना दिया है। एक सदबुद्धि और सतप्रवृत्ति सारे संसारसे ऐमी गायब हो रही समय था जब एशियाके विचारशील पुरुषोंने मनुष्यम है जैसे मानसरोवरसे मुक्राफल चुगने वाले हंस । स्वार्थकी विद्यमान पशुता और क्रताको रोकने के लिए पड़ीसे चोटीका मात्रा बढ़ती जा रही है, नीति और सत्यका गला स्वार्थ जोर लगा दिया था। किन्तु खेद है कि आज इस रोशन साधनके लिये घोटा जा रह! है । इनके पास उन्नति इसीका जमानेमें बुद्धि की इस पाशविक सत्ताने हमारी नैतिक और नाम है, किन्तु इमीमें ही अवनति बीजरूपसे छिपी न रह अध्यात्मिक सम्पत्तिको छीन लिया है। पशुओंकी क्षमता कर अपना विकराल रूप प्रकट कर रही है:- जद नहीं थी, जीवनसे उसका संयोग अवश्य था। वह "राह वो चलते है-लगती है जिसमें टोकर प्राणियोंकी ही सत्ता थी, किन्तु श्राजकलके वैज्ञानिक युगके काम हम करते हैं वह-जिसमें जरर देखते हैं।" प्राविष्कार उदाहरणार्थ सर्वनाशकारी बमके गोले, विषली भृमण्डलके इन आबुनिक विद्वानोंने या पूजीपतियोंने गैसें, प्राणघातक हवाई जहाज, लयकालको लानेवाले धन-द्वारा ही जगतकी सभी वस्तुनौका मूल्य निर्धारित रोबों बम अंटम बम, श्रादि भयंकर अस्त्र सर्वथा जड़ है।
SR No.538008
Book TitleAnekant 1946 Book 08 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1946
Total Pages513
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size68 MB
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